Saturday, August 31, 2013

बिखरते अहसास

तुमने कहा प्यार मुझे तुमसे
मैं भीग उठी मीठे अहसासों में
सपने रुपहले लगी बुनने
कदम आसमां लगे छूने

नयनों में लहराने लगे
लाल रक्तिम डोरे 
 
प्रेम की पीग बढ़ाती मैं
विचरने लगी चांदनी से
नहाई रातों में
भोर की पहली किरण सी
चमकने लगी देह 

 
प्रेम तुम्हारा
ओढ़ने बिछाने लगी मैं

जीवन हो गया सुवासित
होने लगा उससे प्यार
फिर यथार्थ का कठोर धरातल
कैक्टस सी जमीं
लहुलुहान होते सपने बिखरी सी मैं

पर सुकूं तू हाथ थामे था खडा
वक़्त के निर्मम थपेड़े
उनकी मार देह और आत्मा पर
निशां छोडती अमिट से
मरहम सा सपर्श तेरा
रूह को देता था क़रार 

 
फिर एक दिन तुमने कहा
मुक्ति दे दो मुझे
नहीं मिला सकता
कदम से कदम
नहीं बन सकता अब
हमकदम हमसफ़र तेरा 

 
मुश्किल थे वो पल
दुरूह से मेरे लिए
तुम्हारे दूर जाने की सोच ही
दहला देती थी हृदय को
मैंने देखी बेचैनी
तुम्हारी आँखों में
तड़पती मछली सी कसक 

 
और उसी क्षण मुठ्ठी से
फिसलती रेत सा
कर दिया था आज़ाद तुम्हे
तुम दूर होते गए
और फिर हो ओझल
निगाहों से मेरी 

 
आज जब याद करती तुम्हे
एक परछाई सी
नज़र आती है बस

हाँ अहसास जीवंत से है
अब
साथी मेरे
जिन्होंने जीना सिखाया मुझे 
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Tuesday, August 27, 2013

आधुनिकता की आंधी

विशाल ने कल एक चित्र के साथ हास्य रचना पोस्ट की .....उस चित्र को देखकर हंसी के साथ जेहन में आये ये भाव आप सभी मित्रो की नज़र ......आशा है आपको पसंद आयेंगे ......

आधुनिकता की बही अब कुछ ऐसी आंधी
गर्भ में ही बन गए शिशु फेसबुक के आदी

राजधानी एक्सप्रेस है भया मानव अंधी दौड़
भ्रूण से ही शुरू हुई अस्तित्व पाने की ये हौड

अंधी दौड़ जीवन की अफरातफरी है चहुँ ओर
संवेदनाये मर रही संस्कृति रही है दम तोड़

डिजिटल अब दुनिया भई नेट मोबाइल का जोर
फेसबुक ट्विटर मन ललचाये नाचे मन का मोर

शांति हॉस्पिटल है जा रही चिंतित जियरा पुरजोर
फेसबुक ना खोलने पाने की पीड़ा प्रसव से भी घोर

शिशु की चुप्पी से थी वो घबराई जैसे कोई ढोर
आज सुबह से ना हलचल थी ना था कोई शोर

अल्ट्रासाउंड टेबल पर लेटी गुमसुम मूह को मोड़
देखा जैसे ही शुशु को झटका लगा उसे अति जोर

लैपटॉप संग व्यस्त नवजात फेसबुक करत है चोर
देख नौनिहाल की ऐसी छवि माता भई भावविभोर

व्यस्त रहूंगी मैं ऍफ़ बी पर लैपटॉप पर होगा मेरा चकोर
बैठ दोनों करेंगे अपनी-२ सेटिंग छू लेंगे आसमान के छोर

नाम करेगा रौशन किशन कन्हाई मेरा ये चितचोर
आधुनिकता की दौड़ में अव्वल, होगा मेरा नन्द किशोर

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Sunday, August 25, 2013

बातूनी

हां औरत होती ही है बातूनी
खुद से ही बातें करती अक्सर
वो बुनती है गुनती है
टूटे से ख्व़ाब बिखरे से शब्द
पहले बोलती थी उसकी आंखें
अनकहा सब बह जाता था
निर्झर बहते आसुओं संग
फिर सूखने लगे आँखों के कोर
और साथ ही मन के भाव भी....

अब वो बुनती है गुनती है
मन की वेदना घुटी सी चीत्कार
उसका खुद से
बातें करने का सिलसिला
तीव्र होने लगी है उसकी गति
अब अक्सर खुद से बातें करती
नज़र आती है वो....

वो बुनती है गुनती है
चातक सी प्यास तन की सिलवटें
देह की मृगतृष्णा भटकाती उसे
क्षणिक चमक भरमाती उसे
ढूंढती उसमें वो तृप्ति
लेकिन तोड़ ये मकड़जाल संभलती वो.....

वो बुनती है गुनती है
मन का अंतर्द्वंद और आत्मचिंतन
जो ले जाता उसे अनंत की ओर
खींचता बरबस अपनी ओर
कुछ निर्भय और आश्वस्त होती
अपने बिखरे वजूद को बटोरती वो....

वो बुनती है गुनती है
मन की रिक्तता मरु सी तपिश
अब खटकते नहीं सपने
उसकी आखों में हाँ आंखें उसकी
जो स्व्प्नीली थी कभी
फिर से जीवंत नज़र है आने लगी वो.....

अब बुनती है गुनती है
मन के गीत मीठा सा संगीत
जो सुकून दे जाता है उसे
खुद से बातें करने का सिलसिला
अब हो गया है अनवरत सा
हर पल बुदबुदाती गुनगुनाती वो
लिखती कभी पीड़ा कभी जीवन के गीत .....

हाँ बुनती है गुनती है
वो अब हरसिंगार की खुशबू
मीठे से अहसास
बातें करना खुद से रास आने लगा उसे
अब क्योंकि मिल गया जरिया उसे
अपनी पीड़ा रिक्तता ख़ुशी ग़म
हर भाव को शब्दों में उकेरने का...

अब वो बुनती है गुनती है
कलकल सी हंसी मुस्कुराते भाव
हाँ नारी होती है बातूनी
खुद से करती है बातें हर पल ........

Thursday, August 1, 2013

व्यस्त सी है जिंदगी
हिस्सों में बँटी हुई
सिरे परस्पर उलझे से
रेत से फिसल रहे ....
 
सागर की लहरों सी 
शोर संग विकल बढ़ी
शिलाओं के नगर में
टूटी हुई सांस सी .....
 
है कभी मधुमास सी
पिया मिलन की आस लिए 
चाहतों के घरौंदे में
मधुर से अहसास सी ....
 
चक्की के पाटों में फंसी
पिस रही बेबस बड़ी
सूखे से कोर में
अश्रु की बरसात सी .....
 
अनबुझी प्यास सी
रूह की भटकन लिए
नीरवता के सघन में
उड़ रही खाक सी ......
 
सन्नाटो का है उपद्रव
मौन एक रुदन लिए
मरघट से शहर में
मृत्यु के संताप सी .....
 
व्यस्त सी है जिंदगी
हास सी परिहास सी
मुस्कानों के मेलें में
अपनों के साथ सी.......