Wednesday, September 10, 2014

नग्न सत्य

एक नग्न सत्य
जो ढांपने को आतुर
बुद्धि और तर्कों के आवरण से
स्वयं को
स्त्री केवल एक शरीर
उभारों से परिपूर्ण
जिसकी चाल में शोखी
आँखों में मस्ती
और बातों में रस है टपकता
आँखों की भूख
जो निगलने को आतुर
कभी बातों से कभी हाथों से
और कभी बलात्कार से
होती तृप्त अतृप्त कुंठाए
विकृत घिनौनी मानसिकताएं
वासना की आग चाहती आहुति
छप्पन भोग सा हो जाता एक शरीर
भोग को आधुनिकता का जामा पहना
स्त्री जो मात्र एक शरीर है
उसका भरपूर उपयोग है किया जाता
और फिर फेंक दिया जाता कूड़ेदान में
कहीं कचरे समान
और हैरत ये सारे उपकर्म में
खड़ी होती स्त्री ही कटघरे में ......
क्यों गई सुनसान रस्ते पर?
क्यों पहने तंग कपडे?
क्यों निडर बनने का किया दुस्साहस ?
जाने कितने क्यों घेर चीखते उसे
हर तरफ से सिर्फ कोलाहल शोर
और चीखें है सुनाई देती
और वो कान बंद कर अपने
बैठ जाती घुटनों के बल
सिसकती कराहती सी
अपने नारी होने पर ग्लानि करती
अपनी पीढ़ा को टांगों में भींच
उससे निजात पाने का निरर्थक सा प्रयास करती
और वासना से रक्तिम आंखें
अठ्ठास करती फिर जुट जाती खोजने
एक नया शिकार खोज जारी है
और सच
बुद्धि और तर्कों का आवरण ओढ़े गहन निद्रा में लीन है
******************

Tuesday, September 9, 2014

बातें सीली सी

आंखें हाँ आंखें
कह जाती सब
अच्छा बुरा झूठ सच
कभी हंसकर कभी बहकर
कहना उनका होता सार्थक
जब समझ होती परिपक्व
भांप लेती झांक लेती शब्दों से परे
बेंधती असमंजस के मकड़जाल को.......

वर्ना तो आँखों की अथाह गहराइयों में
डूब जाती अनगिनत बातें
जो खो देती अपना अस्तित्व
आँखों के सागर में गोते लगाती
डूब जाती थककर पैठ जाती
तलहठी में कहीं
सीले से काई से सने
किसी कोने को थाम.......
 
समय के गर्भ में सिसकती निरंतर
जब पीढ़ा उनकी हो जाती असहनीय
तो रिसने लगती पीब सी
आँखों के कोरों से लेकिन कसक उनकी
कहाँ लेने देती है चैन
वो तो नासूर बन टीस लिए कराहती
उम्र भर आँखों के पथराने के इंतज़ार में.......
*****************