एक नग्न सत्य
जो ढांपने को आतुर
बुद्धि और तर्कों के आवरण से
स्वयं को
स्त्री केवल एक शरीर
उभारों से परिपूर्ण
जिसकी चाल में शोखी
आँखों में मस्ती
और बातों में रस है टपकता
आँखों की भूख
जो निगलने को आतुर
कभी बातों से कभी हाथों से
और कभी बलात्कार से
होती तृप्त अतृप्त कुंठाए
विकृत घिनौनी मानसिकताएं
वासना की आग चाहती आहुति
छप्पन भोग सा हो जाता एक शरीर
भोग को आधुनिकता का जामा पहना
स्त्री जो मात्र एक शरीर है
उसका भरपूर उपयोग है किया जाता
और फिर फेंक दिया जाता कूड़ेदान में
कहीं कचरे समान
और हैरत ये सारे उपकर्म में
खड़ी होती स्त्री ही कटघरे में ......
क्यों गई सुनसान रस्ते पर?
क्यों पहने तंग कपडे?
क्यों निडर बनने का किया दुस्साहस ?
जाने कितने क्यों घेर चीखते उसे
हर तरफ से सिर्फ कोलाहल शोर
और चीखें है सुनाई देती
और वो कान बंद कर अपने
बैठ जाती घुटनों के बल
सिसकती कराहती सी
अपने नारी होने पर ग्लानि करती
अपनी पीढ़ा को टांगों में भींच
उससे निजात पाने का निरर्थक सा प्रयास करती
और वासना से रक्तिम आंखें
अठ्ठास करती फिर जुट जाती खोजने
एक नया शिकार खोज जारी है
और सच
बुद्धि और तर्कों का आवरण ओढ़े गहन निद्रा में लीन है
******************