सुना है
बचपन से रोना
है जिन्दा होने की निशानी,
बात है यह लौकिक
नहीं रूहानी
एक पुरुष को बचपन से
है सिखाया जाता
कि रोने वाले कमजोर है होते
चूंकि पुरुष कमजोर नहीं
बलवान है
स्त्री जननी है
सृष्टि की पोषक भी
लेकिन सृष्टि
पुरुष सत्ता के आगे
नतमस्तक है
और इसीलिए
रोना लिखा गया केवल
स्त्री की नियति में,
और तुम तो मर्द हो
मर्द कभी नहीं है रोते,
और देखा जाए तो
इस तरह
पुरुष के जिन्दा होने को
कर दिया जाता है खारिज़,
कि पुरुष बन जाता है कठोर
संवेदनाओं को उलीच देता है
मन के किसी कोटर में
और कर देता है चिन्हित
वहां निषेध,
कि रोता होगा मन उसका
कि होती होगी पीड़ा उसको
लेकिन आँखों में बाँध सीख के
रोक लेते सैलाब को
होती प्रतिध्वनित एक ही आवाज़
कानो में उसके
कि तुम मर्द हो
और मर्द कभी नहीं है रोते
और तब ढूंढता है
जीवंतता
उसका उद्वेलित मन
स्त्री के क्रंदन और चीत्कारों में..............