Monday, June 19, 2017

रोना जिन्दा होने की है निशानी



सुना है
बचपन से रोना
है जिन्दा होने की निशानी,
बात है यह लौकिक
नहीं रूहानी
एक पुरुष को बचपन से
है सिखाया जाता
कि रोने वाले कमजोर है होते
चूंकि पुरुष कमजोर नहीं
बलवान है
स्त्री जननी है
सृष्टि की पोषक भी
लेकिन सृष्टि
पुरुष सत्ता के आगे
नतमस्तक है
और इसीलिए
रोना लिखा गया केवल
स्त्री की नियति में,
और तुम तो मर्द हो
मर्द कभी नहीं है रोते,
और देखा जाए तो
इस तरह
पुरुष के जिन्दा होने को
कर दिया जाता है खारिज़,
कि पुरुष बन जाता है कठोर
संवेदनाओं को उलीच देता है
मन के किसी कोटर में
और कर देता है चिन्हित
वहां निषेध,
कि रोता होगा मन उसका
कि होती होगी पीड़ा उसको
लेकिन आँखों में बाँध सीख के
रोक लेते सैलाब को
होती प्रतिध्वनित एक ही आवाज़
कानो में उसके
कि तुम मर्द हो
और मर्द कभी नहीं है रोते
और तब ढूंढता है
जीवंतता
उसका उद्वेलित मन
स्त्री के क्रंदन और चीत्कारों में..............

Friday, May 26, 2017

जंगलराज

सनद रहे
के आगाज़ हो गया है
हम जंगलराज में है
के टूट चुके है बाँध
मर्यादाओं सीमाओं के
के मर गया है आँख का पानी
के आदमी हो गया है भेड़िया
और मांस के लोथड़े
उनकी गंध बना रही है उसे
आदमखोर
और निशाने पर है
स्त्री 


उसका सौन्दर्य उसके शरीर के उभार
और उसकी योनी
जो सृष्टि की जननी कह
पूजी जाती थी
अब भड़काती है
इन्सान के भीतर छिपे जानवर को
वहशी आदमखोर हो जाने के लिए

कहते है
जीवन चक्र जब है घूमता
तो वक़्त स्वयं को है दोहराता
के आने वाला है
वहीँ पुरातन समय
जब स्त्री को
घर की चार दीवारी में कैद
कर दिया गया
के खीच दी गई
देहरी पर एक लक्ष्मण रेखा
इस ताकीद के साथ
लाघंना मत
इस रेखा को

के सीता को तो लक्ष्मण रेखा लांघने पर
मिला विरह अपमान अवसाद परित्याग
और धरती में समाने की सजा
दंड स्वरुप
लेकिन तुम्हे रेखा लांघते ही
निशाना हो जाना पड़ेगा
उन आदमखोरों का
जो लगाए बैठे है घात
तुम्हारे अस्तित्व को रौंद देने की
उनकी थोथी तुष्टि
मर्दानगी को सहलाती
तुम्हे मसलकर रौंदकर
लील जायेगी तुम्हारा स्त्रीत्व

और
यहीं नहीं होगा अंत तुम्हारे दंड का
के नोच फेंकेंगे वो
तुम्हारे उभार अपने नुकीले पैने दांतों से
और तुम्हारी योनी में
उड़ेल देंगे पिघलता हुआ लावा
तुम्हारी चीखो को
कर अनसुना निकाल फेंकेगे
तुम्हारी योनी को
और घोंप देंगे
तुम्हारी गर्दन में खंजर
ताकि तुम्हारी चीख
तोड़ देवे दम

तो ओढ़ लो घूंघट
के मत पड़ने दो
किसी की भी छाया अपने बदन पर
सिकोड़ लो खुद को
सिमट जाओ अपने दालान में
के आदमखोर शिकार पर है

और
इस तरह दे दो मुक्ति
माँ की उन दुश्चिंताओं को भी
जो बेटी के देर रात घर से बाहर रहने पर
घेर लेती उसके समस्त वजूद को
काले अंधियारे बादलों सी
वो अधीर हो मिलाती उसका फ़ोन
और फ़ोन न मिलने पर
भय से सिहर उठता है माँ का मन
के बेटी उसकी आदमखोरों के बीच अकेली है

के एक बार फेर
उस माँ की दुश्चिंताओं भय
खानदान की इज्ज़त और नाक
को बाँध दिया जाएगा
घर के आँगन में बंधे खूंटे से
यह बुदबुदाते हुए
सनद रहे
के आगाज़ हो गया है
हम जंगलराज में है
*************

Thursday, September 8, 2016

अबोल

कहना बेतरतीब सा, आक्रोशित सा, अवसाद में डूबा सा, या फिर सघन अंधियारों में बेतहाशा दौड़ता पसीने की दुर्गंध में सना, चीखने को आतुर लेकिन चीख उसकी गले में ही घुट दम तोड़ती, फिर भी आंखें कहने को लालायित और न कह पाने की पीड़ा पिघलकर आँखों में सागर के होने के भ्रम को कसकर पकडे कहती बहुत कुछ, जो अनकहा है जो अनबुझ है जो रहस्यों की भीनी सी चादर में सिमटा सा है, जिसे जानने समझने की जिज्ञासा और जिज्ञासु मन, कहना मनन चिंतन में बुनता कभी प्रश्नों को चंदा मामा में चरखा कातती बूढी अम्मा सा, कहना कई मर्तबे मन के सागर में डूबता उतरता सीप में पैठ जाता मोती सा, और फिर स्वप्न संसार में हो जीवंत पाने को राह मुखौटे ओढ़े बहुरूपिये सा करता अट्ठाहस, और फिर कहीं दूर सिसकियों के साथ तीव्र होता है एक विलाप जो कह जाता है बहुत कुछ...........कहना जब समझ से परे हो जाता है तब उसका हश्र या नियति कुछ ऐसी ही स्थिति की नज़र हो जाती है...........है न