पागल सी मैं
कहती हूँ कुछ भी
कहती हर पल
कभी तुमसे
कभी खुद से
कहना मेरा
ब्रह्माण्ड में विचरते
शब्दों सा
भावो की बारिश सा
कही अनकही
अपनी ही बाते
कभी रीते घड़े सा
मन के किसी कोने में
पाता पनाह
और जो रह जाता
अनकहा शेष
वो दीखता है
मुस्कराता हुआ
तुम्हारी आँखों में
खोकर पाने की चाह
झलकती है
उन सच्ची बातो में
शेष फिर शेष नही रहता
समर्पण शेष कहा स्वीकार करता है
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समर्पण शेष कहा स्वीकार करता है
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