अलसुबह
जब मन रमता
प्रभु ध्यान में
कानो में आती
मधुर ध्वनि
पक्षियों के कलरव की
या मंदिर के घंटे की
वहीँ उसके कान
सुनते केवल विलाप
भोर से लेकर सांझ तक
केवल रुदन और विलाप
माटी से निर्मित देह
होती परिवर्तित माटी में ही
जीवन और मृत्यु के
इस शाश्वत सत्य को
शायद उसने ही
महसूस किया है शिद्दत से
बढ़ जाती जब भीड़ कभी
तो वो गुस्से में
बुदबुदाता वो
जल्दी करो
और लोग
हतप्रभ रह जाते
उसकी जल्दबाजी पर
हृदय विहीनता पर
क्या ये संवेदना शून्य है
नहीं ये उसका कर्म है
और अपने कर्म से बंधा वो
जानता काया नश्वर है
व्यर्थ इसका मोह है
जो आया है
उसका जाना है निश्चित
फिर काहे का विलाप
या फिर
मृत शरीर
ढोते ढोते
मर चुकी है
उसकी
संवेदनाये भी
और
पाषाण सा हो चूका है वो
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बहुत ही सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति।
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