पागल सी मैं
कहती हूँ कुछ भी
कहती हर पल
कभी तुमसे
कभी खुद से
कहना मेरा
ब्रह्माण्ड में विचरते
शब्दों सा
भावो की बारिश सा
कही अनकही
अपनी ही बाते
कभी रीते घड़े सा
मन के किसी कोने में
पाता पनाह
और जो रह जाता
अनकहा शेष
वो दीखता है
मुस्कराता हुआ
तुम्हारी आँखों में
खोकर पाने की चाह
झलकती है
उन सच्ची बातो में
शेष फिर शेष नही रहता
समर्पण शेष कहा स्वीकार करता है
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समर्पण शेष कहा स्वीकार करता है
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कविताओं की भीड़ मे एक सीधी कविता
ReplyDeleteनमस्कार सर सहज शब्दों में अपनी बात कहने का प्रयास भर है...........आभार
Deleteहाँ किरण सही कहा तुमने "समर्पण शेष कहाँ स्वीकारता है " सुंदर भावो से सज्जित अभिव्यक्ति... शुभम
ReplyDeleteप्रति जी नमस्कार सच कहे तो आपसे प्रतिपल बहुत कुछ सीखा हमने और आज जो जैसा कुछ लिख पा रहे है उसका श्रेय बहुत हद तक आपके मार्गदर्शन को जाता है.........शुक्रिया :)
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