Sunday, March 10, 2013

भूर्ण हत्या और धरहरा की धरोहर

कन्या भूर्ण हत्या आज के समय में एक ज्वलंत समस्या है आज चाहे हमने कितनी भी तरक्की क्यों ना कर ली हो लेकिन हमारी मानसिकता आज भी स्त्री पुरुष लिंग भेद से उप्पर नहीं उठ पाई है आज भी लड़के के होने पर खुशियाँ मनाई जाती है, और कन्या भूर्ण हत्या को सरंजाम दिया जाता है कुछ राज्यों में तो कन्या भूर्ण हत्या के चलते स्थिती यह है कि लडकियो की संख्या इतनी कम हो गई है कि वहां लडको की शादी के लिए लडकिया खरीदी जाती है जिन्हें बहला फूलसा के दूसरे राज्यों से लाया जाता है और बेच दिया जाता है और उन्हें ऐसे परिवेश में रहने को बाध्य होना पड़ता है जहाँ की भाषा और रहन सहन से वो पूरी तरह अनभिज्ञ होती है और इस तरह से वहां जिस्म फरोशी का बाज़ार सरेआम चलता है, आज भी छोटे शहरो और गावों में ही नहीं अपितु महानगरो में भी लडकियो को भेद भाव की पीड़ा और इससे जुडी अनेको समस्याओ को वहन करना पड़ रहा है चाहे अनचाहे! 
वहीँ दूसरी तरफ भागलपुर जिले के नवगछिया से सटे गोपालपुर प्रखंड का एक छोटा सा गाँव है धरहरा,जो पटना से पूर्व में 230 किलोमीटर की दूरी पर है, वहां बेटियो के जन्म पर पेड़ लगाकर बेटी के होने के उत्सव को मनाया जाता है! यह एक सदियों पुरानी प्रथा है.कोई नहीं जानता कि इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई.  वहां 1961 में निर्मला देवी जी ने जब एक बेटी को जन्म दिया तो उनके पति ने 50 आम के पेड़ लगाकर जन्मोत्सव मनाया,उनकी दूसरी पुत्री के जन्म के बाद तथा बाद में पोतियों के जन्म का उत्सव पेड़ लगाकर मनाया गया,आज निर्मला देवी के पास आम और लीची का 10 एकड़ का बगीचा है! शायद यहाँ से इस प्रथा का शुभ आरम्भ हुआ होगा तब से अमीर हों या गरीब,उच्च जाति के हों या निम्न जाति के सभी लोग बेटी के जन्म पर पेड़ जरुर लगाते हैं,बेटी का जन्मोत्सव यहाँ पर कम से कम 10 फलदार पेड़ लगाकर मनाया जाता है और बेटी को लक्ष्मी का अवतार माना जाता है! हरियाली से ओत-प्रोत धरहरा गाँव दक्षिण में गंगा से और उत्तर पूर्व में कोसी नदी से घिरा है. धरहरा की बेटियां गर्व से अपने आपको हरित क्रांति की पक्षधर कहलाना पसंद करती हैं! 2010 में यह गाँव तब प्रकाश में आया जब लोगों को पता चला कि एक परिवार बेटी के जन्म पर कम से कम 10 पौधे जरुर लगाते हैं. पेड़ लगाने की यह प्रथा कई पीढ़ियों से जारी है. 2010 में 7000 की जनसँख्या वाले इस गाँव में लगभग एक लाख पेड़ थे,ज्यादातर आम और लीची के! 1200 एकड़ क्षेत्रफल वाले इस गाँव में 400 एकड़ क्षेत्र में फलदार पेड़ लगे हैं, इस गाँव में स्त्रियों और पुरुषों का अनुपात 1000 :871 है. पर्यावरण को हरा भरा,साफ़ सुथरा और बीमारियों से परे रखने के अलावा यह प्रथा बेटियों का एक तरह से बीमा कवर का कार्य करती है,शहरों में लोग जिस तरह बेटियों की शिक्षा,विवाह आदि के लिए रुपया जमा करते हैं वहीँ धरहरा में लोग फलदार पेड़ लगाते हैं! भारत जैसे देश में जहाँ कन्या भ्रूण हत्या और दहेज़ हत्या चरम पर है,इस तरह की प्रथा अवश्य ही प्रशंसनीय है, महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह अद्भुत कदम है, यहाँ की वनपुत्रियाँ ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओ से भी जागरूक होने का सन्देश देती है! एक तरफ हम स्त्री को माँ दुर्गे और माँ अम्बे के रूप में पूजते है, लेकिन व्यवहार में हम ऐसा नहीं करते! ठीक यही स्थिति पेड़ों को लेकर है, पेड़ों की पूजा की जाती है लेकिन जब आवश्यकता आस्था पर भारी पड़ने लगती है तो पेड़ों को काट देते है बिना सोचे समझे आज शहरो में पेड़ देखने को नहीं मिलते हरियाली कि जगह बड़ी बड़ी इमारतों ने ले ली है, ऐसे में धरहरा के लोगों ने एक बड़ा सन्देश दिया है, धरहरा से निकला बेटियों के नाम पर पेड़ लगाने का सन्देश आज देश भर में गूंज रहा है, इस बार गणतंत्र दिवस के अवसर पर बिहार राज्य कि झांकी में धरहरा कि इसी परंपरा को दर्शाया गया जो देश के दूसरे गांवों के लोगों को भी प्रेरित करेगी साथ ही कन्या भ्रूण हत्या और उससे जुडी समस्याओ से निजात का सन्देश भी देगी और इसके साथ पर्यावरण को हरित क्रांति की और भी उद्धत करेगी..........

Thursday, March 7, 2013

रीति का निर्वाह

मस्तिष्क की शुन्यता में विचरती वो
भावशून्य सी देख रही थी इकटक वो
जो पार्थिव शरीर श्वेत कपड़े में था
उसके सामने और कर रही थी प्रयास
निरंतर उसे पहचानने का ...........

आस पास रिश्तेदारों और पड़ोसने बैठी थी
विलाप का इक स्वर उसके कानो से टकरा रहा था
तभी किसी ने झकझोर कर उसे कहा की रो ले शांति
थोडा सा रोने से मन हल्का हो जायेगा
और वो सोच रही थी की थोडा सा रोने से
इतने सालो का गुबार राह पायेगा क्या मन का??

उसका पति हमेशा इक मानुष खोजती रही वो उसमे
लेकिन उसे केवल इक दरिंदा ही नज़र आया उसमे
शराब के नशे में धुत वो लाल आँखें
अब तो घर कर चुकी है उसके अंतस में .......

आंतरिक क्षणों में भी उसने स्त्रीत्व को पाने की बहुत चेष्टा की
लेकिन इक भोग्या से अधिक ना बन पाई वो कभी
और वो इक दरिन्दे की तरह अपनी पिपासा शांत होने तक
निरंतर नोचता रहा उसकी आत्मा को ........

हमेशा दुत्कार गाली और मार ही तो आई उसके हिस्से में
इसी तरह चलती रही जिंदगी अपने प्रवाह के साथ गतिमान सी
और उसके संग वो भी कभी लडखडाती कभी हारती
हर बार खुद को समेट कर चलती ..............

हाँ हर साल इक बच्चा सौगात रूप में उसका आँचल सजाता रहा
मन की कटुता उसे पाषाण बनाती गई
और भाव उसके मन के सब सूखते चले गए
सुनती आई थी वो कि पति देवता होता है
लेकिन उसका मन क्या मान पाया उस व्यक्ति को कभी देवता ??

आज जब पड़ा है उसका मृत शरीर तो पुराने जख्म
जो उसकी रूह को कुरचते ताज़ा होने लगे
और चीत्कार उठी वो और साथ ही
दो बूँद आसूं ढुलक आये उसके गालो पर .........

सबने राहत की सांस ली की हो गया कर्तव्य का निर्वाह
और स्त्रियों ने फिर से इक बार विलाप शुरू किया
इस शोर के बीच सोच रही वो अभी भी ये
उसके सब्र को राह मिली उसके आंसू है
या रीति का निर्वाह उसने है किया .............किरण आर्य