Wednesday, February 10, 2016

प्रेम

नमस्कार मित्रों फ़रवरी माह के आते ही हर मन कहता है थोडा सा रूमानी हो जाए.........संत वलेंटाइन ने भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन प्रेम का स्वरुप इस तरह से सामने आएगा......हर मन कुछ दिन सब भूल रूमानी होने को आतुर हो जाएगा........प्यार एक अनुभूति एक पुरसुकून सा एहसास है जिसे हर मन अपने अनुसार परिभाषित करता है......और प्रेम मुस्कुराता है क्युकि वो सब परिभाषाओं से परे है......

अमृता के लिए इमरोज़ का प्रेम ऐसा प्रेम रहा है जिसने मुझे अंतस से छुआ, लेकिन जब पढ़ा कहीं कि इमरोज़ एक बार अमृता से नाराज़ हुए तो दो साल तक दूर रहे, तब मन में एक बेचैनी ने जन्म लिया क्या जिसे हम खुद से ज्यादा प्यार करे उससे दूर रहा जा सकता है ? कहते है प्यार है एक दुसरे को पूरी तरह समझना, लेकिन क्या हम तमाम जिंदगी खुद के साथ रहते हुए भी स्वयं को समझ पाते है ? आत्मबोध होना तो मोक्ष की निशानी होता है न ? और मोक्ष पा साधक हो जाना हर किसी के वश की बात कहाँ ? 

किसी को समझ पाने के लिए सात जन्म भी कम होते है, मुझे अक्सर ऐसा लगता है, इंसानी फितरत और स्वभाव अक्सर परिस्तिथियों की नज़र हो जाता है, इंसान कभी अच्छा बुरा नहीं होता केवल परिस्थितियां अच्छी या बुरी होती है और बेक़सूर सा जीव चढ़ जाता उनकी भेंट......खैर हम आते है प्रेम पर.....तो प्रेम में अलगाव क्या प्रेम का ही स्वरुप ? और लोग कहते है प्रेम वहीँ जो पूर्ण नहीं हुआ....हाँ याद भी तो उन्ही के प्रेम को करते है लोग जो मिल न सके बाकी जिन्होंने अपने प्रेम को पा लिया उनका प्रेम तो चूल्हे चौके की नज़र हो और निन्यानवे के फेर में पड़ जाने कहाँ खो गया.....प्रेम में होना एक तरह का जूनून होता है, केवल वहीँ दीखता सोच में विचारों में ख्यालों में हर तरफ सिर्फ वहीँ, गर ऐसा प्रेम इष्ट से हो जावे तो कहना ही क्या सूफियाना सा हो जाए आलम....लेकिन प्रेम पा लेने की प्यास को करता पोषित.....विरह अग्नि उसे कम नहीं होने देती जरा भी.....अग्नि की तपिश प्यास को बढ़ाती....

जब हर तरफ वहीँ दिखता उसी को सर्वस्व समझ मन उसके इर्दगिर्द ही जीवन बुन लेता तब आपेक्षाये है जन्मती.....और प्रेम का आलिंगन है करती प्रेम उस घेरे में सिमट जाता, और इस तरह प्रेम का दम घुटने लगता, वो छटपटाता उस कसते हुए घेरे में और फिर शिथिल पड़ने लगता है....आपेक्षाये विचलित हो अपना घेरा है कसती, विकल सी खो देने की आकांशा.....क्युकी प्रेम के अतिरिक्त तो कुछ और ध्येय रहा ही नहीं....तो लगता सब खत्म हुआ....

शायद भूल जाता बावरा सा मन कि अंत शुरुवात की और देखता है, और जहाँ एक राह बंद है हो जाती तो खुलती है राह कई....यहाँ बात विकल्पों की नहीं कि एक हाथ छूटा तो दूजा पकड़ लो यहाँ बात है अपने अंतस को टटोलने की राह तय करनी अपने भीतर खोजना मार्ग और जीवन ध्येय भी....प्रेम का विस्तार करना यानी प्रेम को ढूंढना हर कण में फिर पा जाने को कुछ नहीं रह जाएगा शेष.....और अतृप्त प्यास से मिलेगी मुक्ति.....और फिर विश्वास जो जीवन का आधार है उसका क्या ? गर प्रेम पर अटूट विश्वास तो प्रेम कहीं नहीं जाता वो घूमफिर भटक भटका कर लौट आता वहीँ जहाँ जिस मोड़ पर आपको छोड़ गया था खड़ा.....क्युकी वो प्रेम है छलावा नहीं.....मैं प्रेम को इस तरह और इतना ही समझ पाई.....बाकी आप बताये आपने प्रेम को कैसे कितना और किस तरह जाना समझा ?.....बाकी चलते चलते निदा साहब का एक शेर याद आ गया आपकी नज़र...
हर आदमी में होते है दस बीस आदमी, जब जिसे देखना, कई बार देखना।