Thursday, August 21, 2014

साझेदारी

बीते समय की है बातें
भूले बिसरे से है फ़साने
ख़ुशी और गम होते थे
साझा से
सांझी होती थी छत
एक रसोई की खुशबू से
महकता था
दूजे घर का आँगन
पडोसी की ख़ुशी से
थिरकते थे कदम जहाँ
उनके गम से
नम हो जाते थे
दिल के जज़्बात भी ........

आज भी होती है साझेदारी
फर्क फ़कत इतना है
पडोसी की ख़ुशी
दे जाती है
गम के काले साये
अमावस की रात से
कुछ बेचैनी साँसों को
और गम उसका
कर जाता है रोशन
आँखों के टिमटिमाते से दीये......

आधुनिकता का जामा पहने
गरूर से नैन मटकाती सी
साझेदारी
दंभ से कहती
दस्तूर निभा रही
मैं भी जमाने का
रास आ ही गया
हुनर मुझे
मुखौटें लगा चेहरे पर
नित नए मुस्कुराने का
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Wednesday, August 6, 2014

जाने क्यों ?

जाने क्यों ?

साँझा होती है खुशियाँ
हर दिल पर असर करती है
बादलों की ओट से निकल
जैसे तारें चमकते
नील गगन पर
रोशन हो जाती है
अमावस की स्याह रात भी
जुगनुओं के टिमटिमाने से  
ऐसे ही खुशियों दिल में बसर करती है

खुशियाँ बिखर जाती है
मन के आंगन में
रात की रानी के
फूलों की महक सी
उस महक से हो आकर्षित
हर मन भंवरे सा खीचा चला आता है
समेट लेना चाहता है
अपने अंतस में खुशबु का कुछ अंश
जैसे भंवरा फूल को चाहता है

लेकिन जब बात गम की आती है
गम तन्हा सा
बिसरता नज़र आता है
ठोकरों की नज़र हुआ जाता है
बैठ किसी सुनसान कोठरी में कहीं
सिसकियों को सहलाता है
नम आँखों में बसर करता है
भीगे होंटों पर मुस्कुराता है

हर नज़र गम से कतराती है
बचा दामन अपना
नज़रें चुरा कर निकल जाती है
हाथ छूट जाते है
हाथों से कुछ यूँ
जैसे रेत बंद मुठ्ठी से सरक जाती है
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