Friday, April 1, 2016

समर्पण शेष कहा स्वीकार करता है

पागल सी मैं कहती हूँ कुछ भी कहती हर पल कभी तुमसे कभी खुद से कहना मेरा ब्रह्माण्ड में विचरते शब्दों सा भावो की बारिश सा कही अनकही अपनी ही बाते कभी रीते घड़े सा मन के किसी कोने में पाता पनाह और जो रह जाता अनकहा शेष वो दीखता है मुस्कराता हुआ तुम्हारी आँखों में खोकर पाने की चाह झलकती है उन सच्ची बातो में शेष फिर शेष नही रहता
समर्पण शेष कहा स्वीकार करता है
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