Thursday, August 30, 2012

ख्वाब

वो ख्वाब जो मोती सा आ गिरा दामन में
हम उठा उसे सहेजा और दिल लगा बैठे
और मान हकीकत आईने सी उसको
हम दरीचे में दिल के सजा बैठे.....
जीने लगे हर अहसास को साथ उसके
बन गया वो ज़िन्दगी के आईना सा,
वक़्त की आँधियों से गुजरा जब वो
तो पाया उसे अक्सर एक मृगतृष्णा सा....
हाथ से रेत सा फिसल जाने का डर
उसके हुआ कुछ और गहरा
जब भीचा उसे मुठ्ठी तले
पानी की बूंदों सा फिसला हथेली से
और खाली रह गए हाथ मेरे....
किसे ठहराए गुनहगार हम
जब गलती खुद हमने की,
ख्वाब को हकीकत समझने की
खैर अब बारी है सजा भुगतने की..........किरण आर्य

Wednesday, August 29, 2012

कविता का जन्म



[क्‍या उन डायरियों में......किनारों से फटे कुछ पन्‍ने....कुछ बिना वजह की तारीखें....आधी अधूरी इबारतें....कुछ पुराने पते...जहां अब कोई नहीं रहता....नहीं....इन सब बातों से कविता नहीं बनती..........माया मृग
तुम्हारा ना होना भी होना है / जो पलको
ं पर सोता है / शब्दों में जगता है / जाने क्या लिखता है / मैं नहीं जानती / तुम जानते हो तो कहो /क्या यही कविता है ? .है ही..........गीता पंडित
माया मृग जी और गीता दी के स्टेटस से प्रेरित............]

कविता हाँ मन के गर्त में सोती सी कुछ यादें
जो खो गई धुंधली हो गई वक़्त के थपेड़ो तले
आज जब उस गर्त को टटोला फिर से तो
एक धुंधली सी परछाई सामने खड़ी नज़र आई

लेकिन उसके सामने आते ही
उसी शिद्दत से फिर तेरी याद आई
हाँ आज भी कहाँ तुझे भूल पाया
तेरी खुशबू तेरा साया फिर मुस्कुराया
जो कविता रह गई थी अधूरी कभी
आज फिर दिल उसे रचने को
आतुर सा नज़र आया............

हाँ ये सोच जो हुई थी विकसित
कविता यादों की गर्त तले दबे
अहसासों से नहीं उपजती
आज भ्रम सी प्रतीत हुई और मन ने कहा
कि भाव वो चाहे कहे हो या अनकहे
दबे हो मन के कोने में या मुखरित से
जब सहलाती यादें उन्हें तो जन्म लेती
उन्ही अहसासों से एक कविता.........किरण आर्य

Monday, August 27, 2012

आम आदमी



हाँ मैं आम आदमी हूँ भीड़ के साथ कदम मिला चलता हूँ भेड़चाल में विश्वास करता हूँ
भ्रष्टाचार मेरा ही तो किस्सा है जब काम बिगड़ता देखता हूँ तो इसका हिस्सा बनता हूँ
कुए के मेंढक सा निज स्वार्थो और खुशियों में पलता हूँ पडोसी की देख ख़ुशी जलता हूँ
हाँ मैं आम आदमी हूँ भीड़ के साथ कदम मिला चलता हूँ भेड़चाल में विश्वास करता हूँ

भीरु है प्रकृति मेरी मन ही मन डरता हूँ साहसी बनने का ढोंग मैं रचता हूँ
आक्रोश को शब्दों से ढकता हूँ समझ कर्तव्य की इति, दिनचर्या में लगता हूँ
रोज़ बिखरता हूँ, उठता हूँ, सिस्टम को धिक्कार के अपनी तुष्टि मैं करता हूँ
हाँ मैं आम आदमी हूँ भीड़ के साथ कदम मिला चलता हूँ भेड़चाल में विश्वास करता हूँ

इंसानियत होती जब शर्मसार कही तो मूक दर्शक मैं बेबस सा दिखता हूँ
अपने जमीर की नजरो में होने खरा, पीडित को कटघरे में खड़ा करता हूँ
कदमो में रख ज़माने को चलता हूँ दुसरो के दुःख दिखते नहीं, सभ्य बनता हूँ
हाँ मैं आम आदमी हूँ भीड़ के साथ कदम मिला चलता हूँ भेड़चाल में विश्वास करता हूँ

निज में है निहित अस्तित्व मेरा, महानता की खोखली बातें मैं करता हूँ
तर्क कुतर्को की रुपरेखा संग, अपने को हर दशा में सही साबित मैं करता हूँ
मर रहा जमीर मेरा हर पल प्रतिपल जानता हूँ ये भी लेकिन फिर भी जाने क्यों
हाँ मैं आम आदमी हूँ भीड़ के साथ कदम मिला चलता हूँ भेड़चाल में विश्वास करता हूँ

जब निष्ठूर नियति करती है वार तो इस यथार्थ से हो रूबरू टूट के बिखरता हूँ
होता वेरगे का भाव प्रबल मोहमाया सा लगता जीवन एक रुदन सा पिघलता हूँ
विछोह किसी अपने का सहना मुश्किल फिर भी हो खड़ा दिनचर्या में जुटता हूँ
हाँ मैं आम आदमी हूँ भीड़ के साथ कदम मिला चलता हूँ भेड़चाल में विश्वास करता हूँ
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                                                             किरण आर्य

Thursday, August 23, 2012

आज फिर




आज फिर एक बच्ची सरे बाज़ार शर्मशार हुई
फिर रुका रुदन कहीं फिर एक चीत्कार हुई
दुखद था रक्त रंजित हो वजूद खोना उसका
फिर आज इंसानियत अपने चोले से बाहर हुई........

लोग खड़े थे बने मूक दर्शक तमाशबीनो से
चीत्कार उसकी जैसे बाजीगर का तमाशा कोई
हर मौजूद' इंसान की मानसिकता तो देखिये
पीड़ित बच्ची को ही कटघरे में कर दिया खड़ा......

यहाँ अनुभवी उम्र में भी लोग गलतियाँ कर जाते है
पर उस बच्ची से समझदारी की उम्मीद जताते है
अभी जिस बच्ची की सोच परिपक्व हुई नही
समझ से बाहर मेरी क्यों उस पर ही अंगुली उठी.......

जमीर की नजरों मे तार तार हुई अस्मत उसकी
स्वयं को पाक साफ करने इज्जत उछाली उसकी
आहत हुआ मन जब नारी भी मर्म को न समझ सकी
जो आइना उसका कटघरे में खड़ा उसे करने चली
उसकी संवेदना से रह अछूती न वो खुद से जोड़ सकी.....

क्या अब संभल पाना होगा आसान उस बच्ची का
मन उसका भी रोता होगा देख ये चेहरा जमाने का
ऐसे लोगो के कारण विवश होती है कुछ बेटिया
आत्मघात कर अपने वजूद को मिटा देती है बेटियाँ......

क्यों पछताए या हो शर्मिंदा एक बेटी अपने होने पर
सोचा तो निष्कर्ष निकाला, बदलनी होगी मानसिकता
और अब करनी होगी शुरुवात इसकी अपने ही घर से.....

बेटी को भी बनाना होगा बेटे सा सबल और मजबूत
बेटो को भी सीखना होगा करना हर लड़की की इज्जत
तभी मिलेगा बेटी को उसका वजूद और खोया सम्मान
और बेटी होगी हरी दूब सी सबल और हरीतिमा लिए............किरण आर्य

Tuesday, August 21, 2012

जाने क्यों




जाने क्या सोच के उसने हमसे मुँह मोड़ लिया,
दिल में पनपे विश्वास को यू चंद लम्हों में तोड़ दिया,
भूल गए वो बहुत मुश्किल से जगह पता है यह दिल में,
गर दरक जाए तो, दोवारा नहीं पनप पाता है यह कभी!
बैठी थी इसी उहोपोह में,सीने में दर्द उनकी जुदाई का बसाये,
तभी नज़र पड़ी एक छोटी सी चीटी पर मेरी,
जो चढ़ती थी दीवार पर धेला मुँह में दबाये,
हर बार कुछ ऊपर चढ़ते ही गिर जाती थी नीचे!
लेकिन हौसला कुछ ऐसा था उसका,
कि फिर एकत्र कर अपनी शक्ति,
चढ़ती थी उसी जज्बे और हौसले के साथ!
देख जेहन में मेरे, ली करवट एक विचार ने,
कहने को तो सबसे श्रेष्ठ जीव है हम,
लेकिन गर लगे जीवन में एक ठोकर,
तो क्या इस कदर टूटे जाते है हम,
कि गिरकर फिर संभल नहीं पाते है हम?
अपने जीवन में हुई गलतियो से,
सबक लेने की बजाय हार जाते है हम,
समझते है सब ख़त्म हुआ जीवन में,
सिर्फ यह आंसू ही है संगी हमारे,
बाकी रिश्ते है झूठे जीवन है अर्थहीन!
गर यह सोच और निराशा को साथी बना,
गिरकर उठ भी नहीं सकते हम,
तो फिर काहे को  श्रेष्ठ  प्राणी कहलाते है हम?
हमसे  श्रेष्ठ  तो वो चीटी है जो बार बार गिरकर भी,
अपनी मंजिल को पाने का जज्बा रखती है,
गिरकर भी अंत में अपनी मंजिल पा ही लेती है!
तो उठो हे दोस्त जहाँ लगे ठोकर,
वहीँ से ही करो एक नई शुरुवात,
जीवन विश्वास के साथ आगे बदने का नाम है,
लगे एक ठोकर तो क्या हुआ संभल कर ही तो मजिल पाई जाती है
- किरण आर्य

Sunday, August 19, 2012

बरसात




प्यास बुझती नहीं बरसात गुजर जाती है
तन्हा - तन्हा सी हर रात गुजर जाती है
प्यासे बैठे है चातक की तरह मुँह उठाये
तकते है आसमा को दिल में अरमान ये लिए
हो बारिश कुछ यूँ जो तन मन को भिगो जाए
अंतर्मन में सुलगती अनबुझी प्यास बुझा जाए
यूं तो हर बरसात मे अहसास जवां होते है 
तुम बिन मेरे ये अहसास अधूरे रह जाते है 
कबके बिछड़े हो तुम हमसे, इस बरसात 
एक बार तुमसे फिर मिला जाए
एक बार तुमसे फिर मिला जाए.....

- किरण आर्या

Saturday, August 18, 2012

तारनहार


 
हे मेरे ईश मेरे तारनहार मेरे मार्गदर्शक, 
तुम्ही ने जीवन से अज्ञान रुपी तम को दूर कर, 
ज्ञान का सच्चा उजियाला फैला दिया है !

हां तुम ही हो जिसने जीवन के भवसागर में, 
डूबती उतरती नैया को किनारे लगा दिया, 
तुम ही मेरी सोच विचारो को दिशा देते हो, 
मेरी सोच को सकारात्मक बना जाते हो !

जब करता है कोई प्रशंसा कर्मो की मेरे, 
तब संकुचित हों आँख मूँद करती ध्यान तुम्हारा, 
मेरे सत्कर्मो के सारथि हो तुम मैं निमित मात्र !

कहते है सब, ईश्वर ने जहाँ बनाया वो सृष्टा जहाँ का, 
लेकिन मेरे लिए तो परमात्मा हो तुम, 
जिसने हर कदम पे मार्गदर्शन किया मेरा, 
हे गुरुवर नित हर पल चाहती हु बस संग तुम्हारा..!

-किरण आर्या 

Thursday, August 16, 2012

दुःख मेरे



दुःख मेरे, जब भी जीवन में आते है,
हौसलों को मेरे इक नई उड़ान दे जाते है,
विषम परिस्थितियो में जीने की कला सिखाते !

बार बार मेरे हौसलों को आजमाते है,
दुःख में भी कैसे मुस्कुराया जाता है?
और आंधियो में शमा को रोशन रखना
सिखला जाते यह दुःख मुझे !

जीवन में गिरकर उठना सिखाते,
इनके आने पर होती पहचान मुझे,
अच्छाई-बुराई की, अपने-परायों की !

जब बोझिल होता इनके बोझ से मन,
देख अपने से ज्यादा दुखी को,
हो जाती मुक्त इनसे लगते यह हीन !

फूलो की खुशबू तो कभी काँटों का ताज है ये,
लेकिन फिर भी भागना नई सिखाते यह,
कहते है डटो और सामना करो हमारा,
तभी तो जीतोगे जीवन के समर में !

जब यह कर जाते सबल जीवन को,
और करते संचार नई शक्ति का,
तो फिर क्यों घबराना इनसे जीवन में?

बस यहीं बिनती है अपने ईश से अब मेरी,
जब देना दुःख जीवन में तो संग देना,
हौसला भी इनको हंसकर अंगीकार कर आगे बड़ने का !

- किरण आर्या