Thursday, September 26, 2013

सिर्फ तुम



मुठ्ठी मेरी निरंतर कसती
और रेत के मानिंद
फिसलते तुम
मुठ्ठी खोल पाने की
जद्दोजहद आह
चहुँ ओर नीरवता का
सघन कुहास
तुम्हारा अहम् विस्तृत होता
उसका घेरा
ऑक्टोपस की भुजाओं सा
और छोटा होता मेरा वजूद
मोम सा है पिघल रहा
सागर की लहरों से आकर
हृदय कपाट पर बिना
दस्तक दिए लौटते कदम तुम्हारे
और झिझक मेरी
बेड़ियों सी कसती शिकंजा अपना
बोझिल सी हवा
दमघोटू माहौल बिखरती सांसे
भीगता सा वजूद
लेकिन मन में टिमटिमाता है
आस का एक दीप
और उसकी लों कर रही है
मन उजियारा
भर रही है रूह में उजास
गर्भ में विकसित होते शिशु सा
कोमल स्नेह स्निग्ध विश्वास
कि लौट कर आओगे
मेरे ही दामन में
तुम एक दिन
भटकती मृगतृष्णा सी
अतृप्त प्यास लिए
और पा जाओगे 
निजात भटकन से जो
दौडती है गलियों में
बौराई लड़की सी चीखती
उस दिन मिलेगी राह
इंतज़ार को मेरे
श्वास को मेरी मिलेंगे नवप्राण
इस सोच के साथ ही
देखो खुल रही है कसती मुठ्ठी
और मुस्कुरा रहे हो
मेरी हथेली में
लकीरों से तुम हाँ सिर्फ तुम 

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Friday, September 6, 2013

गुनाह

खबर हाँ खबर
रोज़ बहुत सी ख़बरों संग
होती है शुरुवात दिन की
कुछ खबर कर देती
मन खट्टा .......

ऐसे ही एक खबर
दिल को छलनी कर गई
मात्र छः साल की वो मासूम
सहमी सी थी कटघरे में खड़ी
कसूर या महापाप ......

उसका फ़कत इतना ही
अमरुद जो था उसके
नन्हें सुकोमल हाथों में था
उसने तोड़ा उसे
पड़ोस के घर से ही ......

पहले का समय आह
पड़ोसी सुख-दुःख के साथ
खाना पीना मिठास
अपने घर की करते थे साझा
आज देखो तो हाय
शनि की कुटिल महादशा ......

चंद अमरुद तोड़ना
बन गया उसका गुनाह
आह मूंह का स्वाद
कसैला सा क्यों
जाने हो चला .....

संवेदनायें हैं मर रही
मानवता है दम तोड़ती
आह पीड़ा ह्रदय की
मूक पीब से भरी ......

सोच निज में सिमटती
वेदना बधिर है हो गई
सकुंचित हो रहा हृदय
आधुनिकता हो रही हावी
मन अपने में है राज़ी .......

दिल करे पैरवी खुद की
हो गया बेमुरव्वत ये पाजी
खुद ही बन गया है देखो
वकील कह लो इसे या क़ाज़ी .....

वक़्त की बेदिली से यारों
दिल है अपना भर गया
संवेदन हीन हुआ मानुष
निज में है सिमट रहा
स्वार्थ हो रहा है हावी
गर्त में है गिर रहा ......