मुझे याद है बचपन से ही
सूर्य का क्षितिज पर उदय होना
पक्षियों का मधुर वो कलरव
मुस्काती किरणों संग लालिमा सूर्य की
मोह लेती थी मन मेरा इकटक निहारती थी मैं
दिन की वो गुनगुनी धुप सर्दियों की साथी
और गर्मी में तपिश उसकी देह को झुलसाती
और सूर्य लालिमा की चादर उतार चमकता
उसकी चमक आँखों को चुंधिया सा देती
और आकाश वो साक्षी इन पलों का निहारता मुझे
नभ पर फैली सूरज की रौशनी कर देती उजियारा
शाम को जब सूरज सागर की बाँहों में समा जाता
उस वक़्त आकाश की नीरवता देह के अवसान
की शुन्यता सी बिखर जाती चहुँ और भयावह सी
आकाश की ये चुप्पी व् स्यामलता डरा जाती कदाचित
मैं डरकर आंखें मूँद लेती और सरपट दौड़ जाती
छत से नीचे की और घर में जाके दुबक जाती इक कोने में
फिर रात के आगमन पर तारो का थाल सजा बुलाता
ये आकाश बरबस खीचता मुझे अपनी ओर ही
मैं सम्मोहन में बंधी खिची चली जाती कठपुतली सी
छत पर पंक्ति से लगी चारपाइयाँ और उन पर लेटें हम
तारो संग बतियाते तब आकाश लगता परिचित अपना सा
उसपर तरह तरह की आकृतियाँ उकेरता हमारा मन
किसी कुशल चित्रकार की भांति आह कितना सुखद वो अहसास
आज जब सोचती हूँ तो यादों के झरोखों से झांकते है वो पल
अब ना आकाश मुझे बुलाता है और ना मेरे पास है समय
उसे निहारने का उससे बैठ बतियाने का .................. किरण आर्य
सूर्य का क्षितिज पर उदय होना
पक्षियों का मधुर वो कलरव
मुस्काती किरणों संग लालिमा सूर्य की
मोह लेती थी मन मेरा इकटक निहारती थी मैं
दिन की वो गुनगुनी धुप सर्दियों की साथी
और गर्मी में तपिश उसकी देह को झुलसाती
और सूर्य लालिमा की चादर उतार चमकता
उसकी चमक आँखों को चुंधिया सा देती
और आकाश वो साक्षी इन पलों का निहारता मुझे
नभ पर फैली सूरज की रौशनी कर देती उजियारा
शाम को जब सूरज सागर की बाँहों में समा जाता
उस वक़्त आकाश की नीरवता देह के अवसान
की शुन्यता सी बिखर जाती चहुँ और भयावह सी
आकाश की ये चुप्पी व् स्यामलता डरा जाती कदाचित
मैं डरकर आंखें मूँद लेती और सरपट दौड़ जाती
छत से नीचे की और घर में जाके दुबक जाती इक कोने में
फिर रात के आगमन पर तारो का थाल सजा बुलाता
ये आकाश बरबस खीचता मुझे अपनी ओर ही
मैं सम्मोहन में बंधी खिची चली जाती कठपुतली सी
छत पर पंक्ति से लगी चारपाइयाँ और उन पर लेटें हम
तारो संग बतियाते तब आकाश लगता परिचित अपना सा
उसपर तरह तरह की आकृतियाँ उकेरता हमारा मन
किसी कुशल चित्रकार की भांति आह कितना सुखद वो अहसास
आज जब सोचती हूँ तो यादों के झरोखों से झांकते है वो पल
अब ना आकाश मुझे बुलाता है और ना मेरे पास है समय
उसे निहारने का उससे बैठ बतियाने का .................. किरण आर्य