Thursday, December 17, 2015

सुप्त आत्माओं को झकझोरने का प्रयास करती खरी खरी

जब तक अपने धोती में आग नहीं लगती तब तक इंसान रूपी जीव की आत्मा सुप्त रहती है, मूकदर्शक तमाशबीन सी हाँ दूजे की आग हाथ तापने के लिए एकदम उत्तम बोले तो सेहत के लिए मन के लिए स्वास्थ्यवर्धक सी......उदासीन आपाधापी सी जिन्दगी में कुछ तो रंगबाजी चाहिए न ......बोले तो थोडा सा मसाला वर्ना जिन्दगी बेस्वाद सी है साला......तभी तो बलात्कार जैसे घिनौने कृत्य के बाद जागृत हुई चेतना जाने शब्दों से और कितनी बार करती चीरहरण उस मासूम का और उसके जख्मों को नाखूनों से कुरेदती तब तक जब तक उनमे से लहूँ न रिसने लगे........गर ये चेतना घटना के घटित होते समय जागृत हो आक्रोशित हो थोड़ी सी मर्दानगी थोड़ी सी जिन्दादिली थोड़ी सी हिम्मत के साथ तो शायद ऐसी घटनाएं न हो......बाद में पीड़िता को, कानून को, सरकार को, पुलिस को, कटघरे में खड़ा करने से बेहतर है घटनास्थल पर गर आप मौजूद है तो बस एक आवाज़ उठाये, कुछ दुखद घट जाने के बाद मोमबत्ती जलाने से बेहतर है घटना के समय एक अलख जगाये.........क्यूकि वहां मौजूद हर शख्स है जानता जो हो रहा वो गलत है, लेकिन सब पहल होने का इंतज़ार है करते........कि कहीं से कोई माँ का लाल जो वास्तव में मर्द हो आवाज़ उठाये....यक़ीनन जहाँ चंद आवाज़ उठेंगी वहां एक सैलाब उठेगा......कुछ दिनों पहले मेट्रो में यात्रा के दौरान मैं जल्दबाजी में पुरुष डिब्बे में दाखिल हुई, तो वहां पहले से ही यात्रा कर रहे कुछ लड़के माँ बहन की भद्दी गालियों के साथ बात कर रहे थे, मेरे चढ़ते ही एक लड़की जो पहले से बैठी थी मेट्रो में अचानक बोलने लगी कि आप लोग इतनी देर से गालियों के साथ बात कर रहे है, आपको इतना तो भान होना चाहिए की सार्वजनिक स्थल पर जहाँ महिलाए भी है आप अपनी भाषा मर्यादित रखे......तो उनमे से एक लड़का अकडकर बोला तुम्हे क्या दिक्कत है ? हम आपस में कैसे चाहे बात करे, गर इतनी ही दिक्कत है तो मैडम अपनी गाडी से चलना शुरू कर दो और उसके इतना कहते ही आसपास खड़े कई पुरुष ठठाकर हस दिए......मैंने बिना पीछे मुड़े तेज़ आवाज़ में इतना कहा तुम लोगो को शर्म आनी चाहिए एक तो गलत बात कर रहे ऊपर से ढिटाई इतनी की अकड़ रहे हो........वो लड़का हडबडा गया और उसका स्वर बदल गया बोला मैडम वो बातचीत में एक दो बार कुछ शब्द निकल गए होंगे.......तो वह लड़की बोली झूट मत बोलो इतनी देर से लगातार तुम लोग माँ बहन को इज्ज़त बक्श रहे हो......मुझे एक बात समझ नहीं आती जहाँ एक ओर अपनी माँ बहन को जरा कुछ कह देने पर इनकी मर्दानगी जाग उठती है और ये तीर तलवार लेकर खड़े हो जाते शूरवीरों से वहीँ दूसरी ओर बात बात पर माँ बहन की गाली देकर क्या जताना चाहते है? या तो इनकी माँ बहनों के पास वो विशिष्ट अंग होते नहीं जो एक स्त्री को पूर्णता प्रदान करते है या ये जीव कर्ण या पांड्वो की तरह ईश्वर की डायरेक्ट देन..........इसीलिए जिज्ञासावश ये जीव इस तरह से माँ बहनों को इज्ज़त बक्शते.....लेकिन एक बात और अरे बई स्त्रियाँ तो हमेशा से अबला कमजोर रही है तो क्यूँ उनकी शान में कसीदे पढ़ते हो ? थोड़ी इज्ज़त पुरुषों भी बक्श दो दो चार गालियाँ उनकी शान में भी देकर दिखाओ तो जाने कि आपके जिगर, फेफड़ों और गुर्दों में दम है.......लो जी बावरा मन गालियों के संसार में भटक गया खैर आते है मुद्दे पर हम......बस जी उस लड़के की आवाज़ थोडा सा लडखडा गई, और उसके बाद कई शब्द मुखर हो उठे, कुछ युवाओं के खून में उबाल आया तो कुछ बुजुर्गों ने भी उनकी भर्त्सना की, एक आवाज़ जहाँ बुलंद हुई अनेक स्वरों को हौसला मिला और कई स्वर उठे गलत के खिलाफ..........तो साहब बात बस इतनी सी है पुलिस को सरकार को या दरिंदों को कोसने से कुछ नहीं होने जाने वाला.....जरूरत है आज समय पर आवाज़ उठाने वाले शूरवीरों की (इसमें केवल पुरुष ही नहीं महिलायें भी स्वयं को शामिल समझे ).........और हाँ एक नेक सलाह..........कागजी शेर जो संवादों से ही कर्तव्य निर्वाह कर लेते वो कुछ गालियाँ भाइयों पिताओं की शान में गढ़ इतिहास रचे........दिल्ली के सर्द माहौल से सर्द होते लोगो के जज्बों को चिंगारी दिखाती खरी खरी के साथ खुराफ़ाती किरण आर्य अपने तीखे से कलेवर में

Thursday, September 24, 2015

खरी खरी (फेसबुक पर डिसलाइक का तड़का)

नमस्कार मित्रो अभी कुछ दिन से लगातार चर्चा में कि फेसबुक पर जल्द ही डिसलाइक का बटन आ रहा है, सुनकर ही दिल डूबने सा लगा सच्च.....अरे घबराए नहीं विचारों के समुन्द्र में जी.....पहले ये होता था कि आपको जो पसंद नहीं आप उसकी पोस्ट पर नहीं झांकेंगे न पढेंगे न कोई टंटा एक मौन सहमती कि आपको मैं पसंद नहीं, तो आप देखे नहीं मैंने क्या लिखा और मुझे आप पसंद न तो मैं आपकी तरफ पीठ भी काहे करू ? यानी शीत युद्ध चलता था.....लेकिन अभी तो शीत युद्ध जैसी पुरातन प्रथा को नेस्तानाबूद करने की तैयारी जी.......हम अपने संस्कारों और प्रथाओं के नाम पर बहुत सी सही और बहुत सी गलत प्रथाओं का निर्वाह आँख मूंदकर करते आये है, और चाहते हमारी भावी पीड़ियाँ भी गलत सही के फेर में पड़े बगैर उनका अँधा अनुकरण करती चले....खैर ये बावरा मन भी न.....भटकन इसकी क्या कहे प्रथाओं के चक्कर में भटक लिया....तो हम आते है मुद्दे पर....अब होगा ये कि जिससे आपकी जरा भी खुडक हो सीधा जाके पोस्ट पर उसकी डिसलाइक का बटन दबा उसको ये बता देने का कि भैये तुम्हारा लेखन एकदम दो कौड़ी का है, और गर आप गुटबाजी के समर्थक तो भाईचारे का निर्वाह करते अपने बंधुवरो के माध्यम से डिसलाइक करा करा बन्दे को अवसाद के गर्त में पंहुचा देने का, ताकि बन्दा लेखन से तौबा कर ले, और फ़तवा जारी कर दे कि मेरी आने वाली सात पुस्त में कोई लिखने का सोचेगा भी नहीं.......हाँ हम जैसे कुछ चिकने घडो की बात अलग है, हमें तो कोई डिसलाइक करे तो हम उसका तहेदिल से शुक्रिया अदा करेंगे, क्युकी उनके डिसलाइक की वजह से लोगो में जिज्ञासा उत्पन्न होगी की भईये आखिर लिखने वाले ने ऐसा क्या लिखा कि इत्ते महानुभाव उसे नापसंद कर रहे है ? उससे होगा ये कि हमारी बात अधिक लोगो तक पहुचेगी, पाठकों की संख्या बढ़ना यानी लिखना सार्थक हो जाता.......और नापसंद करने वालो में कुछ मशहूर तथाकथित अच्छे लेखक हो तो पूछिये मत आपकी तो किस्मत ही चमक गई साहब........खैर ये तो है मेरे बावरे से मन की बात आपकी आप सोचिये जनाब..........दिल्ली से खरी खरी के साथ खुराफाती किरण आर्य

खरी खरी (कुंठित मानसिकता)

नमस्कार मित्रो आज दिमागी कीड़े तनिक बौखलाए हुए है.......छत्तीसगढ़ बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन की ओर से छपने वाली एक किताब में महिलाओं के कामकाजी होने को बढ़ती बेरोजगारी का दोषी बताया गया है. देश की आर्थिक समस्याएं और चुनौतियां वाले चैप्टर में यह कहा गया है कि आजादी के बाद देश में बेरोजगारी इसलिए बढ़ी, क्योंकि हर सेक्टर में महिलाओं ने काम करना शुरू कर दिया है.....यानी महिलाओं का काम करना गुनाह हो गया, जाने क्यों महिलाओं को अक्सर सहजता से कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है ? शायद ये रीत हो गई है, यहीं तो होता आया है सदियों से.....देश को आज़ाद हुए इतना समय हुआ लेकिन ससुरी मानसिकता अभी भी गुलाम ही रह गई, कहते है जीवन परिवर्तनशील है रुत बद्लती है, मौसम बदल जाते है, सदिया है बीतती और युग बदल जाते है, फिर मानसिकता काहे आज भी वहीँ बंधी एक खूटे से अंगद के पाँव सी....आज हम आधुनिक होने का दम भरते है, फिर मानसिकता आज भी क्यों स्त्री को लेकर कुंठित सी है ? ये कटु सत्य है जो अपच का कारण हो सकता है.....मानती हूँ परिवर्तन की गति धीमी होती है.....लेकिन एक विशेष वर्ग की बात छोड़ दे तो माध्यम वर्गीय स्त्रियाँ आज भी इस पीड़ा से मुक्ति राह खोजने में लीन है, क्या करे समाज परिवार की इज्ज़त उनके कंधो पर जो टिकी है......यहाँ दोषी केवल एक कुंठित मानसिकता है कोई वर्ग विशेष नहीं, और कुंठा से कोई भी ग्रसित हो सकता है.......ये ध्यान रहे.......दिल्ली से खरी खरी के साथ खुराफाती किरण आर्य

Friday, September 18, 2015

खरी खरी (दिल का दर्द)

हर बावरी है कहती पति परमेश्वर मेरा स्वामी मेरा प्राण प्यारा, जब ईश्वर का दर्जा दे ही दिया मान ही लिया उसे स्वामी तो फिर वो दिखाए स्वामित्व प्रभुत्व तो काहे महिला सशक्तिकरण का झंडा उठा चिल्लाना जी ? मानसिकता गुलाम प्रवृति को सर माथे लगा ही चुकी है, सदियों से चली आ रही प्रथा लड़की जरा बड़ी हुई नहीं संस्कारों इज्ज़त की बेड़ियाँ पहन पाँव में नाचती ख़ुशी ख़ुशी.......ऐसे मत चलो ऐसे मत हंसो ऊंची आवाज़ में मत बोलो सलीके से रहो......और सबसे बड़ी बात कि अभी बिटिया बड़ी हो रही तो घर के काम काज रसोई बनाना सिखाओ ताकि दूजे घर जाके गाली सुनने को न मिले.......चाहे लड़की जिला क्लेक्टर हो या मंत्री संत्री लेकिन खाना बनाना घर में उसकी जिम्मेदारी, बच्चे कुछ अच्छा कर जावे तो पिता की छाती चौड़ी और जरा गलत चले तो तुम जरा सा बच्चो को भी नहीं संभाल सकती हो ? कमजोर अबला कहलाती और ऑफिस से आके खाना बनाने से लेकर सारी जिम्मेदारी उसके ही सर, गजब बात है ना प्रबल कहलाने वाला पुरुष ऑफिस से आके टीवी देखता खाना खाता और फिर थककर सो जाता और कमजोर महिला ऑफिस से आ बच्चो को देखती खाना बनाती रसोई बना किचेन साफ़ कर सोती सुबह की सब व्यवस्था निपटाकर.....हास्यपद लगता सच बहुत......कल बेटी बोली मम्मा आज टीचर पढ़ा रही थी तो विषय के बीच में आया कि पैर चौड़े कर खड़े होना स्त्री का बुरा क्यों समझा जाता है? बोली मैंने तुरंत कहा मेम ये माना जाता है जो स्त्री पैर चौड़े कर खड़ी होती है वो चरित्रहीन होती है तो उसकी मैडम ने हँसते हुए कहा जानती हो वास्तव में पैर चौड़े कर खड़ा होना आत्मविश्वास की निशानी होती है, लेकिन इसे स्त्री के चरित्र से इसीलिए जोड़ दिया गया ताकि स्त्रियाँ पैर चौड़े कर खड़ी न हो पावे........सुनकर सोच में पड़ गई मैं ? फिर लगा इसमें सोचना कैसा रे यहीं तो होता आता है, अरे तू लड़का है घर का काम बहन को करने दे, लड़के रोते नहीं है, बस रुलाते है ....और लड़की लेकर भाग गया या प्रेम कर बैठा तो कोई नहीं इस उम्र में करते ऐसे कर्म लड़के.....ओह्ह्ह शराब पीने लगा है, या रात की पार्टियों में जाता है, लड़का जवान हो गया है.......दोहरी मानसिकता पुरुष करे तो जायज़ और स्त्री करे तो पाप महापाप.....और कह दो आप तो निरी स्त्रीवादी......यानी कहना भी गुनाह........सहो सहो और चुप रहो यहीं नियति तुम्हारी....स्त्री पुरुष एक ही रथ के दो पहिये है, एक दूजे बिन अधूरे एक दूसरें के पूरक फिर काहे नहीं बराबर ? समाज ने दिया ये ढांचा हमारी पुरातन परम्पराओं से चलता आ रहा ये तो.....यहीं कहेंगे न आप.......अरे बई क्यूँ नहीं इस ढर्रे को बदला जा सकता आखिर समाज हमसे ही बना है न? जब संसार परिवर्तनशील है, तो यहाँ आके क्यों सोच गच्चा खा जाती जी ?.........आज की बात करे तो कुछ पढ़े लिखे दम्पतियों में जो दोनों ही काम करते बाहर जाके घर से बदलाव आया है, वो समझते है स्त्री भी उनकी तरह इंसान हाड मॉस का पुतला है, तो देते साथ समझती उसकी भावनाओं को......जो करते ऐसा वो मासूम बेक़सूर समझे खुद को मेरे कटघरे से बाहर खड़ा........और सही मायनों में कहूँ तो स्त्री जहाँ खड़ी उसके लिए उसकी जिम्मेदारी भागीदारी अधिक है, वो नियति मान बैठी इसे खुद की, महान कहलाने की चाह बड़ी आखिर........सहनशील, त्याग की मूर्ति, प्रेमी ह्रदय कहलाने का मोह जाने कब छोड़ेगा पीछा उसका जाने कब ?........दिल्ली से दिल के दर्द का वमन करती खरी खरी के साथ खुराफाती किरण आर्य

Thursday, September 17, 2015

दुनियावी कोहराम

साहित्यकार रंगनाथ मिश्र चाहे उस कहावत को चरितार्थ करने हेतु झुके हो, कि फलदार वृक्ष ही है झुकते, और इसमें उनकी सहजता या सरलता या भाव नहीं देखा लोगो ने बस ऊ गाना है ना के "कुछ तो लोग कहेंगे लोगो का काम है कहना" बस आँख मींच उसका अनुसरण करने लगे......जान ले ली है बन्दे की.....झुकना घोर अपराध हो गया हो जैसे, इस देश में एक बच्ची के साथ बलात्कार कर कुकर्मी बेशर्मी से सीना तान दांत निपोरता है उसका कुछ नहीं एक सज्जन पुरुष कदमो में झुक लिए उसका बवाल मचा दिए हद है जी......अरे भाई अंधभक्ति भक्तिभाव भी कोई चीज़ होती है.......भाव विभोर हो झुक गए तो क्या हुआ जी ?.....दुनिया झुकती है, सफलता के समक्ष तो सूरज और चाँद भी शीश नवाते जी......अब रंगनाथ जी को अखिलेश यादव में कृष्णा दिख गए और वो भावुकिया गए तो क्या बुरा जी ? सगरा साहित्य जगत मिडिया जगत सक्रीय हो उठा इस महापाप के लिए मिश्र जी को गरियाने को.......कोई साहित्यकार अपनी गरिमा का भान कर सीधे मूह बात न करे तो लोग कहते साहित्य विनम्र बनाता ये कैसे साहित्यकार भला ? जो विनम्र होकर झुक गया वो महापापी हुआ......साहित्य का नाम कलंकित करने वाला......अरे भाई जमाने का चलन यहीं कि चापलूसी और मक्खन लगाने की कला में जो माहिर वो सफल भी और बड़ा भी......तो गर ये अपना लिए उसे तो क्यों इत्ता हल्ला जी?.......जी हजुरी करके कितने ही यहाँ महान हुए, सो फिर एक और इस श्रेणी में हुए शामिल तो क्यों गिला ?.........दिल्ली से दुनियावी कोहराम पर मुस्कुराती खरी खरी के साथ खुराफाती किरण आर्य.......:)

Wednesday, September 16, 2015

बावरी जनता

मुझे इत्ती सी बात समझ न आती है ये अनाड़ी जनता मूढमति सी....... चाहे वो प्राकृतिक आपदा हो, मानव निर्मित आपदा हो या फिर उसकी अपनी परेशानी....जिसमे बेरोजगारी महंगाई स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ सब निहित है......सभी आपदाओं के लिए मासूम नेताओं को काहे कटघरे में खड़ा कर देती है?......अब डेंगू का मच्छर उनसे पूछकर तो नहीं काटता न या उसके जन्म लेने में इनका कोई हाथ हो ऐसा भी नहीं......वो तो स्वत पैदा हो जाता है......और अस्पतालों में इत्ते मरीज है कि जगह नहीं अब उसके लिए भी नेता सरकार दोषी काहे भाई काहे ? कोई भी आमिर इंसान या नेता मरा अभी तक डेंगू या फ्लू से नहीं न, अरे बई ये उनकी सजगता और प्रीकाउसन का कमाल है......हर बात के लिए उन्हें संदेह दृष्टि से न देखे प्लीज, डेंगू मच्छर उनका रिश्तेदार नहीं है जी, या उनके प्रति उसका विशेष नेह अनुराग भी न है.......देश के उत्थान के लिए प्रधानमंत्री विदेशो के साथ अच्छे संबंध बनाने हेतु जुटे हुए पूरी कर्मठता से.....ऐसे में इन छोटी मोटी घरेलु विपदाओं के लिए उन्हें कसूरवार ठहरा उनका ध्यान भंग करना उनकी तपस्या में रूकावट की साजिश है.....अरे भैये वो दिन गए जब ये कहावत चरितार्थ होती थी कि पहले घर सबल होना चाहिए.....आज तो देश के चहुमुखी विकास के लिए ये आवश्यक है कि .....देश में चाहे रोज़ कितने ही बलात्कार हो रहे हो रोज कानून को ताक पर रखकर या सरकारी नौकरी की जगह ठेकेदारी प्रथा चलन में आ रही हो या प्याज की मार से आम आदमी जार जार रोये या डेंगू मलेरिया की वजह से आम जन मर रहा तिल तिल.....उसको दरकिनार कर बस विदेशो के साथ अच्छे संबंध स्थापित हो......कब खुलेगी जनता की आंखें कब नेताओं के सरकार के सुकर्मों को समझने की कूवत अता करेगा इन्हें ईश्वर जाने कब..........जनता की मंदबुद्धि और जाहिलपने पर अफ़सोस करती.........दिल्ली से खरी खरी के साथ खुराफाती किरण आर्य

Friday, September 4, 2015

मन भ्रम

नमस्कार मित्रो आज दिमागी कीड़े कुछ दार्शनिक मूड में.........कहने को आतुर अपनी बात.........समझिएगा और पहुचे वहां जहाँ है राह तो अवगत जरुर करियेगा........

मन का भ्रम
इच्छाओं की
अदृश्य डोरी पकडे
गलतफहमियों के
सघन गलियारे में
निरंतर है दौड़ता
राह
अबूझ पहेली सी
अन्धकार घोर अन्धकार
संकरी सी एक गली
जो मुहाने पर आ
हो जाती बंद
उस पल मन का हाहाकार
हो प्रबल है चीत्कारता
लेकिन गूँज उसकी
प्रतिध्वनित हो लौट आती
टकराती है उसके अंतस से
बेचैनी दौडती
लहू की जगह नसों में उसकी
और फिर दौड़ जाता वो
नई तलाश से बंधा
तलाश नए भ्रम की
जो उसके चिर भ्रम को
तृप्ति दे
गतिहीन सा मन
एक तीखी सी बू
नथुनों से टकराती
सीली सी चाहतों की
साँसे बोझिल सी
पैर लहुलुहान थकान से चूर
फिर भी दौड़ता जाता
सांस की अंतिम छोर की तलाश में
बावरा सा मन.......और हाथ आती सिर्फ भटकन और अतृप्त सी प्यास......नयनों में नीर भरे.................है न

Tuesday, August 25, 2015

देह मिटटी साधो

ओह्ह्ह ये देह तो मिटटी साधो
और जाना शाश्वत है
आगमन के उत्सव सा ही.......

मौत कभी उत्सव का वरण नहीं करती,
मृत्यु शाश्वती आवरण
ओढ़े इठलाती है,
उसकी आहट मन को करती उद्वेलित,
कर्म निवृति की राह में
अंतिम ध्येय सी मौत,

करती अठ्ठास
सत्य है मौत,
लेकिन सत्य का नर्तन होता नग्न
शायद इसीलिए
सत्य से रूबरू होने को उत्सुक मन
उसके समक्ष
आंखें मूँद है लेता

जी हाँ बिलकुल
कबूतर के बिल्ली के समक्ष आंखें मूंदने जैसे ही,
बुरे कर्म भी मौत का आलिंगन करते ही
परिवर्तित हो जाते है सत्कर्मो में,
आश्चर्य है ना ?

रीत यहीं जाने वाला चाहे महाचिरकूट हो
या बड़े वाला बीप बीप
लेकिन जाने के बाद उसको गरियाना
जाने क्यों अपशगुन सा समझा है जाता ?

रुखसती के साथ ही प्रलाप शुरू होता है,
और सब चाहे जीते जी कहते रहे हो
साले के कीड़े पड़े,
लेकिन मरते ही उसकी
आत्मा की शांति के लिए प्रार्थनाये चालु होती,
मृतक के स्वर्गवासी होने की पुष्टि की जाती
उसके नाम के साथ स्वर्गीय लगा,

चाहे जीते जी वो बना गया
जाने कितनो का जीवन नरक सा
जाने वाली आत्मा परमात्मा में होती विलीन
या ओढ़ दूजा चोला
कर्म और संस्कारों के निर्वाह को होती उद्दत
ये निर्भर करता नियति पर उसकी
और नियति को नियत करते संस्कार ही
संस्कारो का फेरा और जीवन कर्म का डेरा
बस यहीं है अंतिम सत्य जिससे बंधा
जीवन मृत्यु का कर्म
और ये बावरा सा जीवन
***************

Thursday, August 20, 2015

बावरी चिरैया

एक थी चिरैया, अरे थी नहीं है एक चिरैया, खुराफाती, मस्तमौला सी, बोलने पे आवे तो अच्छे अच्छों कि धज्जियां उड़ा देवे, बोले तो मुहं के आगे किवाड़ न चिरैया के, जो आया दिल, दिमाग, फेफड़े में सब वमन कर हलकी हो लेना चाहती वो, अब चाहे सेहत से भरी पूरी है चिरैया बिलकुल उससे क्या, ऐसे होना तो खाते पीते खानदान से होने की निशानी ! उसे लगता खरे होना ही जीवन का एक मात्र ध्येय है, क्यूकी सोना भी तो खरा है होता, लेकिन बाबरी ये न जानती थी, कि सोने के आभूषण बनाने के लिए उसमें भी मिलावट करनी पड़ती है, और आभूषणों के चलते ही सोना इतनी डिमांड में, तो ये चिरैया ऐसी ही भावुक मूढमति सी थी, दिल कि बहुत साफ़ सहज थी, इसीलिए किसी को मन से अपना मान लेवे थी, तो उसके लिए जी जान लुटाने को तत्पर हो जाती ये, बस आपकी किसी के प्रति जरा भी खुडक हो, या कोई आपसे दुश्मनी कर लेवे तो इस बाबरी चिरैया के साथ बहनापा रिश्तापा गाँठ लो, और फिर अपना दर्द मगरमच्छ से आसूओं के साथ परोस दो इसके समक्ष, साथ में इस चिरैया को वास्ता देना न भूलो भारत कि वीरांगनाओ का, जिनके लिए किसी का भी दर्द पीड़ा सबसे बड़ी, बस फिर क्या है, इतनी सारी वीरांगनाओ में से किसी एक कि आत्मा तुरंत प्रवेश कर जाती इस बावरी के शरीर में, और चिरैया आपकी दुश्मनी का निर्वाह करने में जुट जाती जी जान से, और दुश्मन भौंचक्का कि ये कहाँ से आन टपकी ? बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना सी.....और ये बावरी आपके फटे में टांग ही नहीं अपनी भरी-पुरी काया समेत पूरा प्रवेश कर जाती है, पर है बहुत ही ईमानदार ये बावरी, जिस तरह रिश्ता जी जान से निभाती है, उसी तरह दुश्मनी भी पूरी शिद्दत से है निभाती, इसे लगता है कि, इस मिटटी काया में २०६ हड्डियाँ मॉस के ढाँचे को सबल प्रदान करती, वो भी मृत्यु उपरांत गंगा में विसर्जित हो जाती, और आत्मा भी चोला बदल जाती, यानी कि मरने के बाद खाली हाथ आये खाली हाथ जाना किवदंती प्रचलित, लेकिन ये बावरी अपनी धुन की पक्की अपने साथ दुश्मनी की गठरी लेकर ही जहां से रुक्सती चाहती ! ताकि एक नई विचारधारा कि जन्मदात्री कहलाये कि इस संसार से जाते हुए इंसान कुछ लेकर चाहे न जा पावे, पर दुश्मनी कि गठरी निश्चित ही ले जा सकता साथ अपने !
दूसरी ख़ास बात या कहे चिरैया की दूसरी कहावत आज के समय में जहां एक हाथ दूसरे को कानोकान खबर ना होने है देता कि क्या लिया और क्या दिया ? यह बावरी किसी में जरा सी भी संभावना देख उसे प्रोत्साहित करती दिलो जां से, फिर चाहे प्रोत्साहन पाने वाला इसके ही कंधे पर पाँव रख इसके ही सर पर खड़े हो ता धिन धिन ना ही क्यों न कर जावे, इसे लगता नेकी कर कुँए में डाल, ये भूल जाती आज जमाना नेकी करने वाले को ही लात मार कुँए में पंहुचा देना चाहता है, यह सोचती है आपका काम और काबिलियत है बोलता, यह भोली न जानती आजकल आपका चाम, चार्म और मीठी वाणी में लिपटी चापलूसी का ही बोलबाला, जो इस कला में पारंगत उनका काम या कर्म चाहे दो कौड़ी के क्यूँ न हो, पर प्रतिष्ठा और सम्मान सब उनकी ही बपौती सब उनकी ही झोली में पनाह है पाते, और इसके जैसे खरे बावरे केवल पुस्तकों की भूमिका में ही जगह है पाते, लोग कहते जब इसे अरे बावरी काहे अपने पैरो पर कुलहाड़ी मार रही है, तो यह हंसकर है कहती, कि अरे भैया जब कालिदास पेड़ की जिस शाखा पर बैठ उसको ही काटने के बाद भी महान विद्वान बन सकते है, तो भला मैं क्यूँ नहीं बार बार अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार सियानी न कहला सकूँ हूँ ? अब आप ही बताये इस बावरी चिरैया को कौन समझाए, अब तो बस आप भी हमारे साथ एक दुआ इसके लिए कर ही डाले ......कि खुदा खैर करे ......