Wednesday, April 30, 2014

भटकन

भटकन मन की
ला पटकती है
इंसान को वीराने में
गहन अंधियारा
जहाँ हाथ को हाथ ना सूझे
और आँख को सूझे ना राह 
खोता वजूद है जीवन 
कोई हाथ ना थामे बाहं
और सन्नाटा
स्याह अँधेरे की चादर ओढे
मौन के मूक रुदन को
सहेजता और
बिखेर देता करुण विलाप
चहुँ और ख़ामोशी के साथ
मन अनजानी कसक सहेजे  
भटकती हुई
अतृप्त सी प्यास लिए
किसी सुकून की तलाश में
ख्व़ाब सजोयें सपनीली आँखों में
भटकता इन्ही विरानो में
वियाबानों में
वजूद को तलाशता सा
लेकिन नियति में
भटकन उसने  खुद ही लिखी
भटकता बिसूरता निरंतर
जीवन सत्य से अनजान
जीवन जो कर्मो से बंधा
और कर्म करते निर्धारण
नियति के चक्र का
आह अज्ञानी
आज देता जो
रिश्तों की दुहाई
वो मन क्या
समझ पाया
प्रेम और विश्वास है क्या ?
खिलवाड़ हाँ
यहीं तो किया
उसने ताउम्र
सहजता सरलता को
ढाल बना
छलता आया वो
छलिया मन
निश्चलता को
वो कहता आसमयिक है
नहीं ये तो होना तय था
क्युकि चेहरों के नकाब
उतरना है निश्चित
रिश्तों का हल्कापन
फरेब का मुल्लमा
चढ़े चेहरों का सच
कब छिपा आईने से ?
रिश्तों को पाने की चाह
इस रिश्ते से उस रिश्ते तक
दौड़ एक अंधी सी
सघन अंधियारे में
ठोकरे खाती सी
चीखती चिल्लाती सी
खुश होता अपनी
होशियारी पर जब
पैठ बना लेता
किसी अबोध मन में
अपनेपन का जाल बिछा
छलिया मन  
और मन जो निश्छल सा
मान उसे अपना करता
आँख बंद भरोसा
उसकी हर बात पर
उसकी जात पर
लेकिन यथार्थ का धरातल
होता हमेशा सख्त कठोर
होते ही उससे सामना
आह व्यथा से भर जाता
यकीन मन का दरकता
टूट कर बिखर जाता
कांच सा और किरचे उसकी
करती लहुलुहान रूह को
दूसरी और मन जो
भरोसे की डोर है थामता
नहीं होता है निर्बल
सबक लेकर बढ़ता आगे वो
और कहता
सुनो ए भटके हुए मन
तुम नहीं कर सकते हो
परास्त
आस को विश्वास को
एहसासों को और रिश्तों को
छल और कपट से
जाओ तुम भोगों
अपनी हिस्से की
ये तपिश
ये भटकन
और हाँ ये छटपटाहट
फल है तुम्हारी ही
भटकन का
व्यर्थ खोखली रीती सी
चाहनाओं से ही
तो है निर्मित
मृगतृष्णा सी ये प्यास तुम्हारी 
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Wednesday, April 16, 2014

राधा तू है, कृष्ण भी तू



वो अनछुई सी मासूम कली
उसके मन का भय
कर गया विचलित मुझे
भय दिखता जो
उसकी बड़ी बड़ी आँखों में
हर नज़र से हर स्पर्श से
घबरा मुरझा जाती
छुईमुई के फूल सी वो
उसकी खीज दिखती
जब लोग कहते
कुटिल मुस्कान के साथ 
कि आओ करे
संबंधो की शुरुवात
एक मुलाकात से क्यूकि
हमारे संबंधों की मधुरता
और सामीप्य पर ही
निर्भर है तुम्हारी सफ़लता
समझ गई ना?
वो सिहर उठती अपने शरीर के
उभारों को ढकने के
असफल से प्रयास संग
स्त्रीजनित एक गुण
मिला उसे विरासत में
नज़रों को भावो को पहचानने का
ये उसका अस्त्र भी
और उसके भय का कारन भी
छिपा उसे अपने आँचल में
मैंने प्यार से दुलारते हुए कहा
लाडो मेरी डरते वो है जो गलत है होते
और डर से डरोगी जितना
वो होगा हावी वजूद पर तुम्हारे
हिम्मत तुम्हारी
कर देगी परास्त उसे
करो सामना उसका
आँख से आँख मिला देखना
कद उसका हो जाएगा बौना तुम्हारे समक्ष
बनो निडर डरो नहीं
अभी छूने है तुम्हे आसमां कई
गाली देना नारी के व्यक्तित्व के लिए
अशोभनीय है....
लज्जा संकोंच चुप्पी सहनशीलता
आभूषण नहीं बेड़ियाँ है
निकाल फेंको इसे मन से
जहाँ सामने है आतुर
तुम्हारे वजूद को निगलने को
उसे अस्त व्यस्त करने को
छिन्न भिन्न कर देने को
अनेको सर्प विकृतियों के
वहां उनका सामना करो
उनकी ही भाषा में
ये जरुरी है उन्हें पता होना
कि गर स्त्री मर्यादा की सीमा से है बंधी
तो समय पड़ने पर वो बन सकती
मरखनी गाय भी
तुम्हारा डर बना रहा तुम्हे
कूप मंडूक या
सीप में छिपे उस मोती सा
जो अपने खोल में खो देता अस्तित्व
तुम्हारी कमजोरी बनती सबल
उनके लिए जो
फायदा उठाने की कला में है माहिर
अबला कहकर पोषित करते वो
तुम्हारे डर को और बेड़ियाँ
स्त्रीत्व को प्राप्त करने की
बेड़ियाँ डाल तुम्हारे पैरो में
बिठा देते वो तुम्हे देवत्व के आसन पर
तो तोड़ दो हर एक वो बंधन
जो बनाता है कमजोर तुम्हे
केवल उपभोग की वस्तु
या एक मात्र रंधर नहीं हो तुम
जो समेट लोगी व्यर्थ की वासना अपने अंतर,
मुख खोलो और थूको चेहरों पर,
और बना दो दागदार हमेशा के लिए,   
तो समझो और बढ़ाओ कदम और
कदम बढाने से पहले स्वयं में
भरो एक उजास एक विश्वास
कि नहीं डरूंगी विकृत मानसिकता से
करुँगी सामना डटकर
                                                हर मुश्किल पल का हंसकर हाँ मैं हंसकर 
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