Thursday, August 21, 2014

साझेदारी

बीते समय की है बातें
भूले बिसरे से है फ़साने
ख़ुशी और गम होते थे
साझा से
सांझी होती थी छत
एक रसोई की खुशबू से
महकता था
दूजे घर का आँगन
पडोसी की ख़ुशी से
थिरकते थे कदम जहाँ
उनके गम से
नम हो जाते थे
दिल के जज़्बात भी ........

आज भी होती है साझेदारी
फर्क फ़कत इतना है
पडोसी की ख़ुशी
दे जाती है
गम के काले साये
अमावस की रात से
कुछ बेचैनी साँसों को
और गम उसका
कर जाता है रोशन
आँखों के टिमटिमाते से दीये......

आधुनिकता का जामा पहने
गरूर से नैन मटकाती सी
साझेदारी
दंभ से कहती
दस्तूर निभा रही
मैं भी जमाने का
रास आ ही गया
हुनर मुझे
मुखौटें लगा चेहरे पर
नित नए मुस्कुराने का
*************

7 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (22.08.2014) को "जीवन की सच्चाई " (चर्चा अंक-1713)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर पोस्ट...

    ReplyDelete
  3. आज का कटु सत्य यही है

    ReplyDelete
  4. वर्तमान समय का यही सच है,
    बहुत सुन्दर रचना
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर ----

    आग्रह है- मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
    हम बेमतलब क्यों डर रहें हैं ----

    ReplyDelete
  5. वर्तमान पर ज्वलंत कटाक्ष .....

    ReplyDelete

शुक्रिया