Monday, October 28, 2013

फितरत

बदलना समय की मांग है 
फितरत भी है जमाने की 
रुत बदलती है 
समय है बदलता यहाँ
हवाओं की आवाज़ाही से 
मौसम बदल जाते है 
क्या कहिये जनाब 
वक़्त की आंधी का असर 
यहाँ तो पल में 
रिश्ते बदल जाते है 
मुखोटों चढ़े है चेहरे यहाँ 
पीठ घूमी नहीं जरा 
हाय खंजर निकल जाते है 
बेगैरत हो गई है संवेदनाये 
कुछ इस कदर 
आँख फिर जाती है और 
इंसान बदल जाते है 
रूह में बसने के जो 
करते थे दावे यहाँ 
पल भर में ही वो 
दिल बदल जाते है 
स्वार्थों की बेदी 
मतलब परस्ती ये हाय 
अंधी दौड़ ज़माने की 
अपने ही जाने हाय
इस दौड़ में कब 
दूर निकल जाते है 
निभा रहे सब दस्तूर 
बेदर्द इस जमाने का 
फिर क्यों सोचकर ये सब 
आँख से आंसू निकल जाते है 
बदलना तो ज़माने की फितरत है 
शायद इसीलिए जज़्बात पिघलकर 
आड़े -तिरछे शब्दों में ढल जाते है
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Friday, October 18, 2013

हर्फ़

मन की किताब हर हर्फ़ 
हाथ की लकीर सा 
लेता आक़ार 
हर पन्ने से जीवंत हो एहसास 
पंख लगा लगते है 
उड़ने पंछी से 
अंनत का आकर्षण 
उसका मोहपाश 
खीच रहा जैसे उन्हें अपनी ही ओर 
हर्फ़ों का भी होता 
अपना ही जहां 
 जहाँ विचरते स्वच्छंद 
वो यहाँ वहां 
कुछ हर्फ़ कशमकश में 
डूबते उतरते 
बौराई लालसाओं से 
भटकते दौड़ते 
निरंतर शून्य में दौड़ते 
वैसे ही जैसे एक भ्रूण 
अपने अस्तित्व की 
अंधी दौड़ में दौड़ता सरपट 
चाह प्रथम आने की 
वजूद के स्थायित्व को वरने की 
कुछ शब्द क्लांत से 
अपने में गुम अनमने से 
कोई कोना ढूंढते सीला सा 
जहाँ वो पा सके पनाह 
कुछ शब्द ऐसे भी 
जो मुस्कान है समेटे 
अपने आँचल में 
हँसते खिलखिलाते 
और आँखों में बस है जाते 
सुनहरे स्वप्न से 
और इस तरह मन की किताब 
उसका हर हर्फ़ 
सहलाता दुलारता हँसता रुलाता 
कभी उदासी से भर जाता 
लेकिन फिर भी हर शब्द 
मन की किताब में 
पनाह पा ही जाता ..........है ना

Wednesday, October 9, 2013

भूख

हमारी ये भूख
साम्प्रदायिक नहीं है
यह है पूरी तरह से
धर्मनिरपेक्ष।

यह नहीं देखती
हिन्दू ना मुस्लिम
ना सिख ना इसाई।
यह खंज़र लेकर हाथ में
खड़ी भी नहीं होती
बस महसूस करती है
अंतड़ियों के दर्द को
हमारी ये भूख

गरीब के सपने सी
अमीर की शोहरत सी
कभी रोती कभी हंसती
हमारी ये भूख।

चोर के ज़मीर सी
आटे में ख़मीर सी
शिकारी के तीर सी
बस चुभती भर है
हमारी ये भूख।

वेश्या की पायल में
 बिछड़े हुए बादल में
माँ के सूने आँचल में
बिलखती सी
हमारी ये भूख

तन को कभी लजाये
नयन नीर सी गिर जाये
मन इधर उधर भटकाए
निर्लज्ज बेहया सी
हमारी ये भूख

आँखों के सूखे कोर सी
बेगानों के ठौर सी
छुप रही चोर सी
बहकती फिरे
हमारी ये भूख

सरिता में बहते नीर सी
पके फफोलों की पीर सी
अपनों पर गिरती शमसीर सी
निरंतर रिसती
हमारी ये भूख
भूख ये भूख
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