Thursday, September 8, 2016

अबोल

कहना बेतरतीब सा, आक्रोशित सा, अवसाद में डूबा सा, या फिर सघन अंधियारों में बेतहाशा दौड़ता पसीने की दुर्गंध में सना, चीखने को आतुर लेकिन चीख उसकी गले में ही घुट दम तोड़ती, फिर भी आंखें कहने को लालायित और न कह पाने की पीड़ा पिघलकर आँखों में सागर के होने के भ्रम को कसकर पकडे कहती बहुत कुछ, जो अनकहा है जो अनबुझ है जो रहस्यों की भीनी सी चादर में सिमटा सा है, जिसे जानने समझने की जिज्ञासा और जिज्ञासु मन, कहना मनन चिंतन में बुनता कभी प्रश्नों को चंदा मामा में चरखा कातती बूढी अम्मा सा, कहना कई मर्तबे मन के सागर में डूबता उतरता सीप में पैठ जाता मोती सा, और फिर स्वप्न संसार में हो जीवंत पाने को राह मुखौटे ओढ़े बहुरूपिये सा करता अट्ठाहस, और फिर कहीं दूर सिसकियों के साथ तीव्र होता है एक विलाप जो कह जाता है बहुत कुछ...........कहना जब समझ से परे हो जाता है तब उसका हश्र या नियति कुछ ऐसी ही स्थिति की नज़र हो जाती है...........है न

Wednesday, May 25, 2016

लालबहादुर पुष्कर मीरापोर............एक मिसाल

नमस्कार मित्रों आज मैं आप सबको एक ऐसे व्यक्तित्व से मिलवा रही हूँ, जो हम सभी के लिए प्रेरणास्त्रोत है, लालबहादुर पुष्कर मीरापोर, मुझे याद है जनवरी २०१३ में मैं पहली बार लालबहादुर से मिली, लालबहादुर उस समय अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी से रिसर्च स्टडी में अध्यनरत थे, एक दिन मैं अपने ऑफिस में बैठी थी, तो एक लड़का सकुचाता सा मेरे पास आया, उसने मुस्कुराकर मुझे अभिवादन करते हुए कहा मैडम मुझे मेरे मित्र मनीष ने आपके विषय में बताया कि आप कोई मासिक गोष्ठी करते है, और फिर बातचीत के दौरान उसने थोडा मुस्कुराते हुए कहा मैडम वैसे तो हिंदी मेरा विषय नहीं है, लेकिन मुझे कविताएं लिखने का शौक है, और अक्सर मैं कुछ नया लिखकर जब अपने मित्रों को सुनाता हूँ, तो वो कहते है अरे भाई क्या लिखे हो ? हमें तो कुछ समझ नहीं आ रहा है, तो मैडम आप एक बार मेरी कविताएं देखेंगी, मैंने तुरंत फेसबुक पर लालबहादुर की वाल देखी और यकीन जानिये जब मैंने उसकी कविताएं पढना शुरू किया तो मैं स्तब्ध रह गई, उसकी भाषा पर पकड़ और समाज के प्रति सोच इतनी विकसित थी, जो बड़े बड़े बुद्धिजीवियों में भी बहुत कम दिखाई पड़ती है, उसी समय ब्रिजेश जी एक साझा काव्य संग्रह पर काम कर रहे थे, मैंने उन्हें बताया लालबहादुर के विषय में और जब उन्होंने कविताएं पड़ी तो वह उसकी लेखनी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए, बोले लड़के में कुछ बात तो है, उसके बाद लालबहादुर से मैं निरंतर जुडी रही, उसने एसआईएस में एक काव्य गोष्टी “स्पर्शण” के नाम से शुरू की, जिसमे जेनयू के छात्रो को साहित्य की समस्त विधाओं से जोड़ने का प्रयास रहा उनका, मैंने उसी दौरान उसे हायकू के विषय में बताया और उसने हायकू के विषय में पढ़कर बहुत जल्द कुछ उम्दा हायकू लिखे, उसकी साहित्य के प्रति लगन व् ललक देख हमेशा मन खुश हुआ बहुत, एक छोटे भाई को इस तरह से आगे बढ़ते देखना सचमुच सुखद होता है बहुत, हमेशा कुछ नया सीखने की आग दिखी उसमे मुझे, और अभी लालबहादुर ने इसी साल में तीन बड़ी उपलब्धियां हासिल की, पहली २३ जनवरी को उन्हें साहित्य के क्षेत्र में युवा प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने हेतु “काका साहेब कालेलकर” सम्मान से “विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान और गाँधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा” के द्वारा सम्मानित किया गया, उसके बाद उनकी दूसरी उपलब्धि रही फरवरी माह में लोकसेवा आयोग उत्तर प्रदेश से मार्केटिंग इंस्पेक्टर के पद पर चयन हुआ, और अभी हाल ही में १० मई को निकले संघ लोकसेवा आयोग के अंतिम परिणाम में सिविल सर्विसेस में 771वा रेंक प्राप्त करना उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि रही......इलाहाबाद के मीरापोर गाँव में रहने वाले लालबहादुर अपने परिवार में छः भाई बहनों में तीसरे नंबर की संतान है अपने माँ पिताजी की, उनके पिता श्री नेबूलाल पुष्कर अपने गाँव के इंटर कॉलेज में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे, जो वर्ष 2009 में सेवा निवृत हो गए, उनके पिता बहुत ही सहज सरल प्रवृति के मेहनती इंसान रहे, आज भी उनकी दिनचर्या सुबह चार बजे से शुरू होती है, स्नान ध्यान के बाद वह चिड़ियों को भोजन कराने और बच्चों को प्रसाद बांटने के पश्चात् आसपास के लोगो की समस्याओं को सुनते और उनकी मदद करने का हर संभव प्रयास करते है, उनकी माताजी कलावती देवी, एक संस्कारी घरेलू महिला है, जिन्होंने घरद्वार की समस्त जिम्मेदारियों को सदा दिल से निभाया, उनके बड़े भैया भाभी, लालबहादुर उन्हें अपना दूसरा माता पिताजी कहते है, उन्होंने उनका सदा बहुत साथ दिया और वहीँ उनके प्रेरणास्त्रोत भी रहे है जीवन में, आज लालबहादुर जो कुछ भी है उसका पूरा श्रेय वह अपने भैया भाभी, माता पिताजी और गाँव के लोगो को देते है, लालबहादुर ने बचपन से ही बहुत मेहनत की, जब वह कक्षा चार में पढ़ते थे, तभी से वह अपनी पान और फूलों की दूकान संभालते थे, अपनी पढाई के साथ, वो मुस्कुराते हुए कहते है, मैंने बचपन से किसी काम को छोटा या बड़ा नहीं समझा वो कहते है मुझे याद है हमारे यहां हर मंगलवार और शुक्रवार को हाट लगती थी, और मेरी दादी पान के बीड़े बनाकर एक डलिया में रख देती थी मैं पूरे बाज़ार में सबको पान बीड़ी देकर आता था, उन्होंने बताया कि मैंने अपने पिता से कभी आर्थिक मदद नहीं ली, जब तक मैं घर पर रहा अपनी स्कूल की पढ़ाई के दौरान, शुरू से ही अपने खर्चे खुद वहन किये, दिल्ली में पढाई करते हुए भी लालबहादुर अपने गाँव अपनी मिट्टी को नहीं भूले उन्होंने अपने गाँव में प्रथम पुस्तकालय “जन पुस्तकालय” खोला जहाँ पर गाँव के सभी लोग आकर पुस्तके पड़ सके, इस पुस्तकालय के लिए उन्होंने कहीं से अनुदान नहीं लिया बल्कि उन्हें मिलने वाले छात्रवृति के पैसो का उपयोग उन्होंने इस पुस्तकालय के लिए किया, आज उनके इस पुस्तकालय में केवल गाँव भर के ही नहीं अपितु आसपास के गाँव के लोग भी पढने आते है, उनके इस पुस्तकालय में दो बड़े समाचार पत्र आते है, और कई नियमित पाठक भी है उनके पुस्तकालय के, इस पुस्तकालय को गाँव के सभी लोग सामूहिक रूप से चला रहे है उनकी अनुपस्थिति में भी, आज भी लालबहादुर एक सम्मानित पद पाने के बावजूद उसी सरलता सहजता से बंधे हुए है हम सभी से जबकि अक्सर लोग थोड़ी सी उपलब्धि पाते ही बदल जाते है यहाँ......उनकी निष्ठां लग्न ईमानदारी सहजता सरलता और जमीं से जुड़े रहने की ललक ही है जो उन्हें औरों से अलग बनाती है, आज भी सबकी मदद करने को वो हमेशा तैयार दीखते है, मुस्कुराते हुए उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से अपने मन को उकेरा है तो उसे मैं साझा कर रही हूँ यहाँ........
अंधेरे में लोग बेख़ौफ़ चल सकें
इसलिए
सस्ती दरों से


मैं चराग़ बेचना चाहता हूँ..............मेरी कलम से

Friday, April 1, 2016

समर्पण शेष कहा स्वीकार करता है

पागल सी मैं कहती हूँ कुछ भी कहती हर पल कभी तुमसे कभी खुद से कहना मेरा ब्रह्माण्ड में विचरते शब्दों सा भावो की बारिश सा कही अनकही अपनी ही बाते कभी रीते घड़े सा मन के किसी कोने में पाता पनाह और जो रह जाता अनकहा शेष वो दीखता है मुस्कराता हुआ तुम्हारी आँखों में खोकर पाने की चाह झलकती है उन सच्ची बातो में शेष फिर शेष नही रहता
समर्पण शेष कहा स्वीकार करता है
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Wednesday, February 10, 2016

प्रेम

नमस्कार मित्रों फ़रवरी माह के आते ही हर मन कहता है थोडा सा रूमानी हो जाए.........संत वलेंटाइन ने भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन प्रेम का स्वरुप इस तरह से सामने आएगा......हर मन कुछ दिन सब भूल रूमानी होने को आतुर हो जाएगा........प्यार एक अनुभूति एक पुरसुकून सा एहसास है जिसे हर मन अपने अनुसार परिभाषित करता है......और प्रेम मुस्कुराता है क्युकि वो सब परिभाषाओं से परे है......

अमृता के लिए इमरोज़ का प्रेम ऐसा प्रेम रहा है जिसने मुझे अंतस से छुआ, लेकिन जब पढ़ा कहीं कि इमरोज़ एक बार अमृता से नाराज़ हुए तो दो साल तक दूर रहे, तब मन में एक बेचैनी ने जन्म लिया क्या जिसे हम खुद से ज्यादा प्यार करे उससे दूर रहा जा सकता है ? कहते है प्यार है एक दुसरे को पूरी तरह समझना, लेकिन क्या हम तमाम जिंदगी खुद के साथ रहते हुए भी स्वयं को समझ पाते है ? आत्मबोध होना तो मोक्ष की निशानी होता है न ? और मोक्ष पा साधक हो जाना हर किसी के वश की बात कहाँ ? 

किसी को समझ पाने के लिए सात जन्म भी कम होते है, मुझे अक्सर ऐसा लगता है, इंसानी फितरत और स्वभाव अक्सर परिस्तिथियों की नज़र हो जाता है, इंसान कभी अच्छा बुरा नहीं होता केवल परिस्थितियां अच्छी या बुरी होती है और बेक़सूर सा जीव चढ़ जाता उनकी भेंट......खैर हम आते है प्रेम पर.....तो प्रेम में अलगाव क्या प्रेम का ही स्वरुप ? और लोग कहते है प्रेम वहीँ जो पूर्ण नहीं हुआ....हाँ याद भी तो उन्ही के प्रेम को करते है लोग जो मिल न सके बाकी जिन्होंने अपने प्रेम को पा लिया उनका प्रेम तो चूल्हे चौके की नज़र हो और निन्यानवे के फेर में पड़ जाने कहाँ खो गया.....प्रेम में होना एक तरह का जूनून होता है, केवल वहीँ दीखता सोच में विचारों में ख्यालों में हर तरफ सिर्फ वहीँ, गर ऐसा प्रेम इष्ट से हो जावे तो कहना ही क्या सूफियाना सा हो जाए आलम....लेकिन प्रेम पा लेने की प्यास को करता पोषित.....विरह अग्नि उसे कम नहीं होने देती जरा भी.....अग्नि की तपिश प्यास को बढ़ाती....

जब हर तरफ वहीँ दिखता उसी को सर्वस्व समझ मन उसके इर्दगिर्द ही जीवन बुन लेता तब आपेक्षाये है जन्मती.....और प्रेम का आलिंगन है करती प्रेम उस घेरे में सिमट जाता, और इस तरह प्रेम का दम घुटने लगता, वो छटपटाता उस कसते हुए घेरे में और फिर शिथिल पड़ने लगता है....आपेक्षाये विचलित हो अपना घेरा है कसती, विकल सी खो देने की आकांशा.....क्युकी प्रेम के अतिरिक्त तो कुछ और ध्येय रहा ही नहीं....तो लगता सब खत्म हुआ....

शायद भूल जाता बावरा सा मन कि अंत शुरुवात की और देखता है, और जहाँ एक राह बंद है हो जाती तो खुलती है राह कई....यहाँ बात विकल्पों की नहीं कि एक हाथ छूटा तो दूजा पकड़ लो यहाँ बात है अपने अंतस को टटोलने की राह तय करनी अपने भीतर खोजना मार्ग और जीवन ध्येय भी....प्रेम का विस्तार करना यानी प्रेम को ढूंढना हर कण में फिर पा जाने को कुछ नहीं रह जाएगा शेष.....और अतृप्त प्यास से मिलेगी मुक्ति.....और फिर विश्वास जो जीवन का आधार है उसका क्या ? गर प्रेम पर अटूट विश्वास तो प्रेम कहीं नहीं जाता वो घूमफिर भटक भटका कर लौट आता वहीँ जहाँ जिस मोड़ पर आपको छोड़ गया था खड़ा.....क्युकी वो प्रेम है छलावा नहीं.....मैं प्रेम को इस तरह और इतना ही समझ पाई.....बाकी आप बताये आपने प्रेम को कैसे कितना और किस तरह जाना समझा ?.....बाकी चलते चलते निदा साहब का एक शेर याद आ गया आपकी नज़र...
हर आदमी में होते है दस बीस आदमी, जब जिसे देखना, कई बार देखना।