Tuesday, October 9, 2012

ए मन क्यों भरमाये रे,
जो तेरा है तेरा ही रहे,
उसको ना कोई छीन सके,
मन ज्योति जले और रूह संवरे
ए मन क्यों भरमाये रे,
जो तेरा है तेरा ही रहे..........

जो बीते समय सा छोड़ चला,
कब तेरा था क्यों भ्रम पले,
क्यों उसके लिए नयन मोती झरे,
क्यों उसके लिए तन चिता जले,
ए मन क्यों भरमाये रे,
जो तेरा है तेरा ही रहे..........

जो अपना है तेरा सपना है,
वो हरदम तेरे साथ रहे,
आँखों में पले भावो में रहे,
और प्रेम की नई रीति बुने,
ए मन क्यों भरमाये रे,
जो तेरा है तेरा ही रहे.........

गर हो जाए कभी दिग्भ्रमित,
तो राह देख उस अपने की,
इक दिन उस राह लौट आएगा,
जो राह तेरी ही चौखट से मिले,
ए मन क्यों भरमाये रे,
जो तेरा है तेरा ही रहे...........

जो विकल्पों की राह पे चले,
वो प्रेम की रीत को क्या समझे,
वो तो भंवरा है इक ऐसा
रसपान करे और आगे बढे,
प्रेम तो खेल है उसके लिए,
ए मन क्यों भरमाये रे,
जो तेरा है तेरा ही रहे..........

जो प्रीत सच्ची सम मीरा सी,
आँखों में पले और रूह में बसे,
वहीँ प्रीत अमर जो निस्वार्थ रहे,
दो मन में रहे एक तन ही दिखे,
ए मन क्यों भरमाये रे,
जो तेरा है तेरा ही रहे...........

इक रिश्ता जो हो देह से परे,
तन ना भी दो मिल पाए,
अहसासों के अखियों में द्वीप जले,
ए मन क्यों भरमाये रे,
जो तेरा है तेरा ही रहे.........किरण आर्य 



Friday, September 21, 2012

 मन में क्षोभ के साथ आक्रोश, उसी को राह देने का प्रयास है यह इस विश्वास के साथ कि शायद कुछ राह मिले...........
डायन हाँ टोनही या बुराई का प्रतीक
मेरे देश में जहाँ एक ओर पूजा जाता
स्त्री को देवी रूप में वहां दूजी ओर कैसे
बन जाती इक स्त्री डायन जब होती वो
विधवा परित्यक्ता, गरीब या उम्रदराज
केवल अन्धविश्वास या निज स्वार्थ से
हो वशीभूत चंद लोग उठाते लाभ
इन कुप्रथाओ का और एक स्त्री जो
स्नेह की प्रतिमूर्ति है होती
यकाएक हो जाती परिवर्तित डायन में..
और बन जाती पत्थरो और
एक दर्दनाक मौत की हकदार 
सामने खड़े उसके अपने ही पशुता की चरम सीमा भी
जब देते लाँघ तार तार होता उसका वजूद भी कपड़ो सा
तप्त सलाखे उसके तन को ही नहीं मन पर भी
अंकित करती ना मिटने वाले निशां
उसको जबरन पिलाया जाने वाला मैला
जहर से भी होता मुश्किल पचा पाना
पी मन के गरल को सहती वो सितम सभी
नोच खसौट जैसे गिद्ध हैं लपकते लाश पर
ख़त्म होती ये अमानवता जब होती
सांस की इतिश्री या फिर होती विवश
उसका अंगीकार करने को स्वयं वो
माना केवल गाँव कस्बो में होता ये
लेकिन शहर में रहकर क्या इससे मुक्त है हम?
केवल आक्रोश व्यक्त कर देने से मिल सकती है मुक्ति?
उस वेदना से क्या जो पलती है उस रुदन में
स्त्री से डायन बन अभिशप्त सी सहमी आँखों में
किसी कुएं का पानी सूख जाना
किसी का बीमार होना
या असमय मृत्यु को प्राप्त होना
इसका दोष मढ़ एक स्त्री पर उसे
कटघरे में कर खड़ा डायन कहा जाना
हास्यपद कहे अशिक्षा अन्धविश्वास या क्या नाम दें?
क्या मिल सकता जवाब मुझे मेरे इन सवालो का?
या फिर अभी स्त्री की परीक्षा के दौर अभी बाकी है?
विडंबना ये कि बावजूद इसके खुद को
कहते सभ्य और आधुनिक हम.......................किरण आर्य      

(आज करती हूँ अपने सभी मित्रो का आवाहन मैं यहाँ जिनकी लेखनी तलवार का काम है करती और जिनकी रचनाये श्रृंगार रस, हास्य रस, करुण रस, वीर रस से औत प्रोत होती है, जिनके शब्द दिलो को झंकृत कर जाते है क्या वो दे सकते है मेरे इन सवालो का जवाब?? क्या मेरी महिला मित्र सभी जो करती अधिकारों की बातें और होती आहात तो खड़ी होती है शेरनी सी आज करेंगी अपने कर्तव्य का निर्वाह इस मुहीम से साथ खड़ी हो मेरे........??????)

Thursday, September 20, 2012

हौसला मेरा




हौसला मेरा
खुशनुमा बयार सा 
निश्छल हँसी सा 
अपनों के स्नेह सा
हरी दूब सा 
आस की कश्ती सा
बारिश की फुहार सा 
कोयल की कूक सा
मोर के नर्तन सा
चाँद की चांदनी सा
भोर की किरण सा 
मदमाती शाम सा 
सुन्दर ख्याल सा 
ईश्वर के दर्श सा
हाँ हौसला मेरा ऐसा ही है

कहाँ डिगा पाएंगी इसे 
आंधियां नकारात्मक सी 
इसी हौसले ने तो सिखाया 
ले सबक इन आँधियों से 
हंसके आगे बढ़ना  मुझे......

टीस

बेटी जो होती है माता पिता के आँगन की शान,
उनका अभिमान और माथे का होती है मान,
शादी के बाद क्यों हो जाती इतनी पराई,
आती जब मायके अपने आँखों में लिए वो आंसू,
दीखता नही दर्द उसका होता एक ही सवाल,

कब जाओगी तुम घर अपने लौटकर,
अनायास ही कर जाता उसे पराया,
क्यों बेटी जो होती है जिगर का टुकड़ा,
लगने लगती अनायास ही चिता की लकड़ी सी,
क्यों सम्मान माता पिता का और
समाज की नजरो के सवाल जो बेध देते है
सम्पूर्ण अस्तित्व को उसके,
हो जाते है क्यों बड़े सुरसा के मूह से,
बेटी के प्रति स्नेह को लील जाते वो,
बेबस और मूक बेटी जब चढ़ जाती बलि,
उसकी सूनी आँखों में रह जाता दर्द
बेटी बन एक अभिशप्त जीवन जीने का,
तब माता पिता की आँख के आंसू
चिता की उस लकड़ी के राख हो जाने का इंतज़ार करते
रह जाते जाने क्यों आँखों के कोरो को डुबोते......
 

इज़्ज़त और प्यार


लोग अपने अहम को बना लेते है सम्मान,
कहते है यही है जिंदगी हमारी यही हमारा मान,
क्या बेकसूरो के जीवन से भी महँगा है यह सम्मान?
जिसके लिए लटका दिया जाता है इन्हे सरेआम,
झुटि इज़्ज़त के नाम पर बेकसूरो की जिंदगी दाव पर लगाते है,
बेवजह ही प्यार करने वालो को सूली पर चदाते है,
जब किसी बच्ची की इज़्ज़त होती है नीलाम सरेआम,
कुछ लोग करते है ऐसे क्रत्य और इंसानियत को बदनाम,
तब कहाँ जाते है, यह तथाकथित इज़्ज़त के ठेकेदार,
जब हर तरफ गूँजती है उस बदनसीब की कारून चीत्कार,
हर रोज़ कही ना कही है दिखता है यह मंज़र,
जब इज़्ज़त के नाम पर सीने मे सरेआम लगता है कोई खंज़र,
तब क्यू खड़े होते है यह बने तमाशबीन मूक दर्शक?
तब क्यू नही आगे आते यह, और बनते किसी मासूम के रक्षक?
कहते है प्यार जीवन है, प्यार ही जीवन की गति है,
फिर क्यू इज़्ज़त के नाम पर प्यार करने वालो की दी जाती बलि है?
कहते है प्यार धरम, जाति और मान से बड़ा होता है,
फिर क्यू धर्म जाति के नाम पर प्यार जार जार रोता है?
चोराहे पर खड़ा हर पल अपना वजूद खोता है,
झुटि इज़्ज़त और सम्मान के नाम पर प्यारी की दुर्गति है,
झुटि इज़्ज़त को मान सम्मान बनाना क्या सम्मति है?
क्या सच मे है यह किसी को सज़ा देने के हक़दार?
यह समाज मे इज़्ज़त के ठेकेदार, इज़्ज़त के ठेकेदार.............    

सुकून


वो एक चेहरा झुरियों से भरा हुआ,
बेबस ठंड से सिकुड़ता हुआ वो पिंजर,
उस एक कंबल के मिलते ही,
खिल उठा, और चमक उठी वो बुझती आँखे,
पथराई सी उन आँखो मे लौट आई फिर से नमी,
कंपकपाते हुए होंठों से निकले कुछ अपुष्ट स्वर,
कांपते हाथ अनायास ही उठे नमन मुद्रा मे,
उस समय मन मे हुआ जिस अहसास का स्रजन,
वो थी आंतरिक खुशी, सुकून और अमन,
सुना था एकांतवास, जंगल या पहाड़ों पर बसता है सुकून ,
लेकिन जब उस बूढ़े झुरियों से भरे चेहरे पर,
आई वो जीवन की मुस्कान, और आँखो मे खुशी,
तो हुआ अहसास कि सुकून तो बसता है उन आँखो मे,
जब उठते है हाथ किसी गिरते को संभालने,
जब दे पाते हैं किसी को सहारा,
अपने हिस्से की अनगिनत खुशियों मे से कुछ पल
उन चेहरो की चमक और खुशी से हिलोरे लेता जो मन मे,
वही है आंतरिक खुशी और अहसास सुकून जीवन मे,
वो अनमोल अहसास जिसे पाने को इंसान भटकता जीवन मे............ किरण आर्या

(मेरी यह रचना मेरे सभी दोस्तो को समर्पित है, जिन्होने 'सभ्य हम' को पढ़कर ज़रूरतमंदों के लिए अपना योगदान दिया- आभार )

सभ्य हम

कुछ आँखे पथराई हुई सी बेबसी से तरसती हुई,
बस बरबस गगन को निहारती हुई निरंतर,
कड़ाके की सर्दी खून को सर्द करती हुई,
उनके तन को नही मन को भी अंदर तक सालती हुई,
अब तो आँसू भी नही बहते आँखो से उनकी,
कोर भी सूख गये है उनके सूखे हुए सोतो की तरह,
ठंड से सिकुड़ते बच्चे उनके कड़कड़ाते हुए,
अब तो रुदन भी उनका हलक से निकलता नही,
कहीं अंदर ही मर रहा है हर पल प्रतिपल,
अपने फटे आँचल से ढाकती उनका सिकुदा बदन,
सोच रही है बेबस माँ इस झीने आँचल मे मेरे,
क्या पता अभी भी गर्मी कुछ बाकी हो,
जो मिटा दे उसके बच्चो की तृष्णा और ठंड,
जो दे उन्हे कुछ गर्माहट भरे प्यारे पल,
हम अपने घर मे रज़ाई मे बैठे गर्म पलो का आनंद लेते,
ब्लोअर से गर्म हुए कमरे मे भी सर्दी को कोस रहे है,
हममे से कितने है जो इनके विषय मे भी सोच रहे है?
क्या इतने सबल भी नही है हम जो दूसरो की खुशी का सोच सके,
अपने करमो से किसी के फीके होटो पर मुस्कुराहट ला सके,
अपने हिस्से के सुखो मे से एक हिस्सा भी नही बांट सकते हम?
फिर कैसे अपने को सभ्य मानव कहते है हम?            


मेरी यह रचना तभी सार्थक है जब हम सभी इन्हे सिर्फ़ सहानुभूति ना देकर दिल से इनके लिए कुछ करने का जज़्बा ला सके, क्या हम एक चेहरे को भी सुकून नही दे सकते अपने कुछ प्रयासो से..................


     

Friday, September 14, 2012

आस की कश्तियाँ


मायूसियों ने आज फिर दस्तक दी
खयालो के बंद दरवाजो से निकल
मन के आँगन में बिखरने को
बेताब सी मायूसियाँ
लेकिन आस की एक लौ
जिससे रोशन है दिल की बस्तियाँ
मुस्कुरा के बोली बुझने ना देना मुझे
जीवन में आयेंगे कठोर थपेड़े
वक़्त की आंधियों तले
हमने मिटती देखी हैं
इन थपेड़ो की गिरफ्त में कई हस्तियाँ
जिंदगी की उलझनों से बिफरती
भटकती सी राहो पर
डगमगते कदमो से उठती गिरती
लहरों सी बेबसी की लाचार सिसकियाँ
मन के सागर में उम्मीद के दीये सी
लहरों सी अठखेलियाँ करती
निरंतर बहती जाती है
आस की यह रोशन कश्तियाँ.........किरण आर्य



Thursday, September 6, 2012

रूह तृप्ति


देह से परे भी होता है इक रिश्ता
हाँ रिश्ता रूह से रूह का
दो तन देह की इक चादर में लिपटे
ढूंढते तृप्ति खो एक दूजे में
और समझ तन की तुष्टी को ही
प्रेम की परिणिति खोते
दो तन अस्तित्व अपना
लेकिन होता जब मोह भंग
और टूट जाते भ्रम सभी
क्षणभंगुर इस काया के परिवर्तन
होते परिलक्षित समय संग
देह का सौन्दर्य होता विलुप्त
और रूह तक पहुचने की
राह भी हो जाती ग़ुम
तब रूह का कौमार्य स्थिर सा
देखता मूक हो और
रूह की पिपासा रह जाती
अतृप्त जीवन पर्यंत
चातक सी भटकती
मन की मृगतृष्णा संग
रूह से रूह का प्रेम है
विलग और बिरला सा
जब करती रूह स्पर्श
एक दूजे को तो मिलन
वो होता शब्दों से परे
केवल अहसासों से ही निर्मित
और अहसास नहीं होते
क्षणभंगुर कभी
वो तो रहते जीवंत सदा
जीवन और मृत्यु के
चक्र से परे रूह से ही
पाक साफ़ और पाकीज़ा से..............किरण आर्य

Tuesday, September 4, 2012

प्रेम डगर

प्रेम डगर कांटो से भरी हाँ संकरी बड़ी
हर कदम संभलना और चलना
हाँ जो जान गया इसकी रीत
वो आंखें बंद कर भी चलता गया
बिना गिरे डगमगाए
इसमें बस समाये एक ही भाव
समर्पण संग विश्वास
प्रेम डगर कांटो से भरी हाँ संकरी बड़ी
हाँ है एकतरफा भी
चल पड़ा जो इसपर
उसको निकलने की राह नहीं
या तो राही हो गया
या फिर मृगतृष्णा सी भटकन
उसकी झोली में आ गिरी
प्रेम डगर कांटो से भरी हाँ संकरी बड़ी
है जीवन निहित इसमें
तो समाई काँटों की चुभन भी
खुशियों की राहगुजर सी
तो आसुओं का सबब कभी
लेकिन जिसने पा लिया मीरा सा भाव
उसको ही है मंजिल मिली
प्रेम डगर कांटो से भरी हाँ संकरी बड़ी..........किरण आर्य
माया मृग जी की पंक्तियों से प्रेरित.........(प्रेम गली सिर्फ संकरी नहीं, इकतरफा भी है.)

मासूम जिंदगी




यथार्थ के कठोर धरातल से टकराकर 
मासूम जिंदगी सिसकती क्यों है.....
शायद आदत में शुमार नहीं था उसकी
हवा के विपरीत चलने पे संभलना.... 

इसीलिए तो रूह उसकी हो रक्तरंजित
पाने को वजूद भटकती यूँ है.....
गर लड़ना है आँधियों से उसे
तो खुद ही संभलना होगा.........
चलना होगा निरंतर एक नई आस संग
और देंगे होंगे मायने खुद को खुद ही..............किरण

 

कहानी




कहानी.....हाँ जीवन एक कहानी ही तो है
कभी मेरी - कभी तुम्हारी कहानी
जो गढ़ी हमने.....
हाँ, कहानी लिखी कहाँ जाती है
वो तो खुद ब खुद बन जाती है,
जो अनुभवों से रची जाती है
उम्र के हर पड़ाव संग कहानी
नित नए रंगों में ढलती है
हाँ देखो कैसे - कैसे रूप बदलती है;.......
कभी नितांत अपनी - तो कभी लगती बेगानी है
कहानी.....हाँ कहानी ये कुछ तेरी - कुछ मेरी
कुछ जानी कुछ अनजानी है......
कितने ही हिस्सों में बंट गई ये और
इस संग टुकडो में बंट गया फिर जीवन,
आज उम्र के एक पड़ाव पर आकर
जब कुछ फुरसत मिली तो आज
उसे फिर सहेजने को मन हुआ,
और जीवन के उन टुकडो में जिंदगी को
कभी हँसते - कभी रोते पाया
कभी खुद को हारते तो कभी
जीवन समर में गिरकर संभलते पाया....
सभी रसों का समावेश मिला उसमे
और तब जाके ये समझ आया
कि ऐसे ही तो नहीं कहते कि
जीवन राह है बड़ी दुर्गम
हौसला है संग तो है सहज भी
वर्ना तो यहाँ लोगो को
बैसाखियों पर ताउम्र चलते पाया.......किरण आर्य

शशक्त हम


धरा है बोझिल आज पाप तले
चहुँ ओर बस हाहाकार व्याप्त है
कहीं चीर हरण बेबस द्रोपदी का
भ्रष्टाचार का होता यहाँ शंखनाद है

रोज़ चढ़ता स्वार्थ की बलि बेदी पर
आम आदमी कर रहा त्राहिमाम है
ईश्वर भी है मौन, रोती खून के आसूं
इंसा की बेबसी, होता यहाँ तांडव नाच है

लाचार टूटते सपनो संग मानुष
कंठ अवरुद्ध, जीने को अभिशप्त है
आज बिकता ईमान कोड़ियों के भाव
नित इंसानियत का होता यहाँ क़त्ल है

कब तक रहेंगे बेबस यूहीं आसूं
उठो और जागृत करो सुप्त मन को
भर दो खुद मे शक्ति और अग्नि
दिखला दो हम कितने शाश्क्त है........किरण आर्य
 

Monday, September 3, 2012

दस्ताने लैला मजनू

लैला से प्यार करके मंजनू की किस्मत जाग गई,
गौर फरमाए लैला से करके प्यार 
मंजनू की किस्मत जाग गई,
मजनू ने लैला को इतने लव लेटर पोस्ट किए,
कि लैला उसे छोड़ पोस्टमॅन के साथ ही भाग गई !!


उस वक़्त तो मंजनू जार जार रोया,
घूमता था कपडे फाड़ के रहता था खोया खोया,
एक दिन पंहुचा वो लैला के ससुराल,
वहां जाकर उसने देखा पोस्टमन का था बुरा हाल,
देख पोस्टमन को बेहाल, मंजनू के खुल गए ज्ञान चक्षु !!


अता किया शुक्रिया खुदा का उसने,
ए खुदा तुने मुझे बाल बाल बचा लिया,
मेरी डूबती नैया को किनारे लगा दिया,
वर्ना मेरा भी होता यहीं मंज़र,
लैला तो है एक ख़ूनी खंज़र !!


वैसे ही लैला के प्यार में खाई बहुत ठोकर मैंने,
अब समझ आया यह प्यार क्या होता है,
न मिले तो दीवाना बना देता है,
लैला मंजनू का फ़साना बना देता है !!


गर मिल जाए दो दिन में दिखा देता यह कमाल,
और जीवन भर बस रह जाता है यहीं मलाल,
क्यों किया प्यार हमने किसी ने ठीक ही कहा है,
और भी गम है ज़माने में मोहब्बत के सिवा !!


सोच यहीं मंजनू के सर से उतर गया प्यार का भूत,
बोला अच्छा हुआ समय रहते खुल गए ज्ञान चक्षु,
और मैं गया इस माया मोह से छूट............किरण आर्य


केबीसी


केबीसी की देख बदती लोकप्रियता,
जा पहुचे हम भी केबीसी में,
देख आमिताभ जी को मन ही मन हर्षाये,
बैठ हॉट सीट पर भाग्य पर अपने इतराए !!

एक मीठी सी मुस्कान फेक बोले अमिताभ जी,
स्वागत है आपका आइये,
खेले कौन बनेगा करोड़पति देवी जी,
हम बोले जी सर पूछिए का पूछना है,
हमारा मन भी है बेताब,
जीतने को करोड़पति का खिताब !!

सुन हमारी प्यारी बतिया आमिताभ जी मुस्काए,
बोले हमारी शुभकामनाये है आपके साथ,
लीजिये पहले प्रश्न आया आपके पास,
तुरंत दीजिये इसका जवाब !!

इनमे से कौन द्रोपदी का पति नहीं था?
१) राम २) अर्जुन ३) भीम या ४) युधिष्टर?
सोचा हमने गौर से और फिर हम मुस्काये,
बोले पूरे कांफिडेंस से आप कृष्ण पर ताला लगाये !!

सुन जवाब हमारा आमिताभ जी चकराए,
बोले देवी जी अब यह कृष्ण कहाँ से आये?
राम है आप्शन में कृष्ण को हम कैसे ताला लगाये?

हम बोले देखिये सर जी राम का द्रोपदी से नहीं कोई नाता है,
इसीलिए लगा कृष्ण ही ठीक हमें, क्यूकि वो द्रोपदी के भ्राता है,
सुन हमारी ये बात आमिताभ जी हो गए हंसी से बेहाल,
बोले देवी जी आप तो है बेमिसाल !!

खुश हो पाते हम जरा सा सुन उनकी यह बात,
उससे पहले ही कानो से हमारे आ टकराई,
पति देव की मीठी आवाज,
सुबह हो गई श्रीमती जी कब तक रहोगी सपनो में,
अब तो छोड़ो निंदिया रानी का साथ,
मल अपनी आँखों को हम थोडा मुस्काए,
सोचा चलो सपने में ही सही आमिताभ जी तो हम मिल आये............किरण आर्य

Thursday, August 30, 2012

ख्वाब

वो ख्वाब जो मोती सा आ गिरा दामन में
हम उठा उसे सहेजा और दिल लगा बैठे
और मान हकीकत आईने सी उसको
हम दरीचे में दिल के सजा बैठे.....
जीने लगे हर अहसास को साथ उसके
बन गया वो ज़िन्दगी के आईना सा,
वक़्त की आँधियों से गुजरा जब वो
तो पाया उसे अक्सर एक मृगतृष्णा सा....
हाथ से रेत सा फिसल जाने का डर
उसके हुआ कुछ और गहरा
जब भीचा उसे मुठ्ठी तले
पानी की बूंदों सा फिसला हथेली से
और खाली रह गए हाथ मेरे....
किसे ठहराए गुनहगार हम
जब गलती खुद हमने की,
ख्वाब को हकीकत समझने की
खैर अब बारी है सजा भुगतने की..........किरण आर्य

Wednesday, August 29, 2012

कविता का जन्म



[क्‍या उन डायरियों में......किनारों से फटे कुछ पन्‍ने....कुछ बिना वजह की तारीखें....आधी अधूरी इबारतें....कुछ पुराने पते...जहां अब कोई नहीं रहता....नहीं....इन सब बातों से कविता नहीं बनती..........माया मृग
तुम्हारा ना होना भी होना है / जो पलको
ं पर सोता है / शब्दों में जगता है / जाने क्या लिखता है / मैं नहीं जानती / तुम जानते हो तो कहो /क्या यही कविता है ? .है ही..........गीता पंडित
माया मृग जी और गीता दी के स्टेटस से प्रेरित............]

कविता हाँ मन के गर्त में सोती सी कुछ यादें
जो खो गई धुंधली हो गई वक़्त के थपेड़ो तले
आज जब उस गर्त को टटोला फिर से तो
एक धुंधली सी परछाई सामने खड़ी नज़र आई

लेकिन उसके सामने आते ही
उसी शिद्दत से फिर तेरी याद आई
हाँ आज भी कहाँ तुझे भूल पाया
तेरी खुशबू तेरा साया फिर मुस्कुराया
जो कविता रह गई थी अधूरी कभी
आज फिर दिल उसे रचने को
आतुर सा नज़र आया............

हाँ ये सोच जो हुई थी विकसित
कविता यादों की गर्त तले दबे
अहसासों से नहीं उपजती
आज भ्रम सी प्रतीत हुई और मन ने कहा
कि भाव वो चाहे कहे हो या अनकहे
दबे हो मन के कोने में या मुखरित से
जब सहलाती यादें उन्हें तो जन्म लेती
उन्ही अहसासों से एक कविता.........किरण आर्य

Monday, August 27, 2012

आम आदमी



हाँ मैं आम आदमी हूँ भीड़ के साथ कदम मिला चलता हूँ भेड़चाल में विश्वास करता हूँ
भ्रष्टाचार मेरा ही तो किस्सा है जब काम बिगड़ता देखता हूँ तो इसका हिस्सा बनता हूँ
कुए के मेंढक सा निज स्वार्थो और खुशियों में पलता हूँ पडोसी की देख ख़ुशी जलता हूँ
हाँ मैं आम आदमी हूँ भीड़ के साथ कदम मिला चलता हूँ भेड़चाल में विश्वास करता हूँ

भीरु है प्रकृति मेरी मन ही मन डरता हूँ साहसी बनने का ढोंग मैं रचता हूँ
आक्रोश को शब्दों से ढकता हूँ समझ कर्तव्य की इति, दिनचर्या में लगता हूँ
रोज़ बिखरता हूँ, उठता हूँ, सिस्टम को धिक्कार के अपनी तुष्टि मैं करता हूँ
हाँ मैं आम आदमी हूँ भीड़ के साथ कदम मिला चलता हूँ भेड़चाल में विश्वास करता हूँ

इंसानियत होती जब शर्मसार कही तो मूक दर्शक मैं बेबस सा दिखता हूँ
अपने जमीर की नजरो में होने खरा, पीडित को कटघरे में खड़ा करता हूँ
कदमो में रख ज़माने को चलता हूँ दुसरो के दुःख दिखते नहीं, सभ्य बनता हूँ
हाँ मैं आम आदमी हूँ भीड़ के साथ कदम मिला चलता हूँ भेड़चाल में विश्वास करता हूँ

निज में है निहित अस्तित्व मेरा, महानता की खोखली बातें मैं करता हूँ
तर्क कुतर्को की रुपरेखा संग, अपने को हर दशा में सही साबित मैं करता हूँ
मर रहा जमीर मेरा हर पल प्रतिपल जानता हूँ ये भी लेकिन फिर भी जाने क्यों
हाँ मैं आम आदमी हूँ भीड़ के साथ कदम मिला चलता हूँ भेड़चाल में विश्वास करता हूँ

जब निष्ठूर नियति करती है वार तो इस यथार्थ से हो रूबरू टूट के बिखरता हूँ
होता वेरगे का भाव प्रबल मोहमाया सा लगता जीवन एक रुदन सा पिघलता हूँ
विछोह किसी अपने का सहना मुश्किल फिर भी हो खड़ा दिनचर्या में जुटता हूँ
हाँ मैं आम आदमी हूँ भीड़ के साथ कदम मिला चलता हूँ भेड़चाल में विश्वास करता हूँ
..................................................................................................................................
                                                             किरण आर्य

Thursday, August 23, 2012

आज फिर




आज फिर एक बच्ची सरे बाज़ार शर्मशार हुई
फिर रुका रुदन कहीं फिर एक चीत्कार हुई
दुखद था रक्त रंजित हो वजूद खोना उसका
फिर आज इंसानियत अपने चोले से बाहर हुई........

लोग खड़े थे बने मूक दर्शक तमाशबीनो से
चीत्कार उसकी जैसे बाजीगर का तमाशा कोई
हर मौजूद' इंसान की मानसिकता तो देखिये
पीड़ित बच्ची को ही कटघरे में कर दिया खड़ा......

यहाँ अनुभवी उम्र में भी लोग गलतियाँ कर जाते है
पर उस बच्ची से समझदारी की उम्मीद जताते है
अभी जिस बच्ची की सोच परिपक्व हुई नही
समझ से बाहर मेरी क्यों उस पर ही अंगुली उठी.......

जमीर की नजरों मे तार तार हुई अस्मत उसकी
स्वयं को पाक साफ करने इज्जत उछाली उसकी
आहत हुआ मन जब नारी भी मर्म को न समझ सकी
जो आइना उसका कटघरे में खड़ा उसे करने चली
उसकी संवेदना से रह अछूती न वो खुद से जोड़ सकी.....

क्या अब संभल पाना होगा आसान उस बच्ची का
मन उसका भी रोता होगा देख ये चेहरा जमाने का
ऐसे लोगो के कारण विवश होती है कुछ बेटिया
आत्मघात कर अपने वजूद को मिटा देती है बेटियाँ......

क्यों पछताए या हो शर्मिंदा एक बेटी अपने होने पर
सोचा तो निष्कर्ष निकाला, बदलनी होगी मानसिकता
और अब करनी होगी शुरुवात इसकी अपने ही घर से.....

बेटी को भी बनाना होगा बेटे सा सबल और मजबूत
बेटो को भी सीखना होगा करना हर लड़की की इज्जत
तभी मिलेगा बेटी को उसका वजूद और खोया सम्मान
और बेटी होगी हरी दूब सी सबल और हरीतिमा लिए............किरण आर्य

Tuesday, August 21, 2012

जाने क्यों




जाने क्या सोच के उसने हमसे मुँह मोड़ लिया,
दिल में पनपे विश्वास को यू चंद लम्हों में तोड़ दिया,
भूल गए वो बहुत मुश्किल से जगह पता है यह दिल में,
गर दरक जाए तो, दोवारा नहीं पनप पाता है यह कभी!
बैठी थी इसी उहोपोह में,सीने में दर्द उनकी जुदाई का बसाये,
तभी नज़र पड़ी एक छोटी सी चीटी पर मेरी,
जो चढ़ती थी दीवार पर धेला मुँह में दबाये,
हर बार कुछ ऊपर चढ़ते ही गिर जाती थी नीचे!
लेकिन हौसला कुछ ऐसा था उसका,
कि फिर एकत्र कर अपनी शक्ति,
चढ़ती थी उसी जज्बे और हौसले के साथ!
देख जेहन में मेरे, ली करवट एक विचार ने,
कहने को तो सबसे श्रेष्ठ जीव है हम,
लेकिन गर लगे जीवन में एक ठोकर,
तो क्या इस कदर टूटे जाते है हम,
कि गिरकर फिर संभल नहीं पाते है हम?
अपने जीवन में हुई गलतियो से,
सबक लेने की बजाय हार जाते है हम,
समझते है सब ख़त्म हुआ जीवन में,
सिर्फ यह आंसू ही है संगी हमारे,
बाकी रिश्ते है झूठे जीवन है अर्थहीन!
गर यह सोच और निराशा को साथी बना,
गिरकर उठ भी नहीं सकते हम,
तो फिर काहे को  श्रेष्ठ  प्राणी कहलाते है हम?
हमसे  श्रेष्ठ  तो वो चीटी है जो बार बार गिरकर भी,
अपनी मंजिल को पाने का जज्बा रखती है,
गिरकर भी अंत में अपनी मंजिल पा ही लेती है!
तो उठो हे दोस्त जहाँ लगे ठोकर,
वहीँ से ही करो एक नई शुरुवात,
जीवन विश्वास के साथ आगे बदने का नाम है,
लगे एक ठोकर तो क्या हुआ संभल कर ही तो मजिल पाई जाती है
- किरण आर्य

Sunday, August 19, 2012

बरसात




प्यास बुझती नहीं बरसात गुजर जाती है
तन्हा - तन्हा सी हर रात गुजर जाती है
प्यासे बैठे है चातक की तरह मुँह उठाये
तकते है आसमा को दिल में अरमान ये लिए
हो बारिश कुछ यूँ जो तन मन को भिगो जाए
अंतर्मन में सुलगती अनबुझी प्यास बुझा जाए
यूं तो हर बरसात मे अहसास जवां होते है 
तुम बिन मेरे ये अहसास अधूरे रह जाते है 
कबके बिछड़े हो तुम हमसे, इस बरसात 
एक बार तुमसे फिर मिला जाए
एक बार तुमसे फिर मिला जाए.....

- किरण आर्या

Saturday, August 18, 2012

तारनहार


 
हे मेरे ईश मेरे तारनहार मेरे मार्गदर्शक, 
तुम्ही ने जीवन से अज्ञान रुपी तम को दूर कर, 
ज्ञान का सच्चा उजियाला फैला दिया है !

हां तुम ही हो जिसने जीवन के भवसागर में, 
डूबती उतरती नैया को किनारे लगा दिया, 
तुम ही मेरी सोच विचारो को दिशा देते हो, 
मेरी सोच को सकारात्मक बना जाते हो !

जब करता है कोई प्रशंसा कर्मो की मेरे, 
तब संकुचित हों आँख मूँद करती ध्यान तुम्हारा, 
मेरे सत्कर्मो के सारथि हो तुम मैं निमित मात्र !

कहते है सब, ईश्वर ने जहाँ बनाया वो सृष्टा जहाँ का, 
लेकिन मेरे लिए तो परमात्मा हो तुम, 
जिसने हर कदम पे मार्गदर्शन किया मेरा, 
हे गुरुवर नित हर पल चाहती हु बस संग तुम्हारा..!

-किरण आर्या 

Thursday, August 16, 2012

दुःख मेरे



दुःख मेरे, जब भी जीवन में आते है,
हौसलों को मेरे इक नई उड़ान दे जाते है,
विषम परिस्थितियो में जीने की कला सिखाते !

बार बार मेरे हौसलों को आजमाते है,
दुःख में भी कैसे मुस्कुराया जाता है?
और आंधियो में शमा को रोशन रखना
सिखला जाते यह दुःख मुझे !

जीवन में गिरकर उठना सिखाते,
इनके आने पर होती पहचान मुझे,
अच्छाई-बुराई की, अपने-परायों की !

जब बोझिल होता इनके बोझ से मन,
देख अपने से ज्यादा दुखी को,
हो जाती मुक्त इनसे लगते यह हीन !

फूलो की खुशबू तो कभी काँटों का ताज है ये,
लेकिन फिर भी भागना नई सिखाते यह,
कहते है डटो और सामना करो हमारा,
तभी तो जीतोगे जीवन के समर में !

जब यह कर जाते सबल जीवन को,
और करते संचार नई शक्ति का,
तो फिर क्यों घबराना इनसे जीवन में?

बस यहीं बिनती है अपने ईश से अब मेरी,
जब देना दुःख जीवन में तो संग देना,
हौसला भी इनको हंसकर अंगीकार कर आगे बड़ने का !

- किरण आर्या