Friday, October 7, 2011

तुम बिन

ए मेरी जीवन संगिनी तुम कहाँ हो गई हो ग़ुम? 
जैसे शाम होते ही सूरज,
छिप जाता है सागर के आगोश में,
वैसे ही तुम खो गई क्यों चिर निंद्रा में,
जब थी तुम पास मेरे हर क्षण,
तब जान ही नहीं पाया क्या अहमियत है,
तुम्हारे होने की इस जीवन में,
आज जब तुम नहीं हो संग मेरे,
तब जीवन की धूप ने झुलसा दिया तन और मन,
और अहसास हुआ अपने अधूरेपन का,
हूँ शून्य मात्र मैं तुम बिन,
वैसे ही जैसे पतझड़ में फूलो के,
गिरने से आती है विरानी,
तुम थी तो जीवन था स्वछंद पक्षी समान,
हर चिंता और दुःख को तुम्हारी हंसी और प्यार,
बहा ले जाता था दूर अनंत में कहीं,
आज फिर तुम संग बीते पलों को जीना चाहता हूँ,
तुम्हारे प्यार को सहेजना चाहता हूँ,
जो फिसल गए मुठ्ठी से मेरी रेत के मानिंद,
एक बार फिर उन पलों को समेटना चाहता हू,
तुम संग जीना चाहता हूँ,
और बस यहीं कहना चाहता हूँ,
तुम बिन छिन्न भिन्न हो बिखर गया जीवन मेरा,
लौट आओ एक बार फिर सावन बन, 
बरस जाओ फिर जीवन में मेरे खुशियाँ बन..........किरण आर्य

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