Thursday, February 7, 2013

दरख्त और मानुष


ये जो ठूंट सा है दरख़्त खड़ा,
है ये बीते कल का ही साक्षी,
देखे कई पतझड़ है इसने ,
रूबरू हुए इससे बसंत कई ........

है जो लहज़ा इसका सख्त सा,
वक़्त के निर्मम थपेड़ो की मार है,
और उर में बसी जो है मृदुलता,
मोहब्बतों का ही कुछ तो खुमार है ..........

कभी नन्ही पौध सम खिला था ये,
इठलाता सा ये हाँ व्यस्क हुआ,
तब नित नए पुष्प थे खिलते यहाँ,
तब भ्रमरे गुंजन भी थे करते यहाँ .........

पंछी नीड़ बसाने को आतुर थे रहते
फल-फूलो संग गौरान्वित ये हुआ,
राह पथिको की विश्राम ग्रही था बना,
जब साँझ की श्यामल बदली लगी छाने,
जीवन सत्य से ये रूबरू था हुआ ..........

धीरे धीरे जो संगी साथी थे इसके,
सब साथ इसका राह में छोड़ चले,
पत्ते पतझड़ सम झड़ने लगे,
रूप गर्वित था जो वो चूर हुआ,
और ये सूखा इक दरख्त था बना .........

अब निरीह बेबस उदास सा था ये,
वीरान पथ पर है अकेला खड़ा,
कभी बीते दिनों की यादों संग,
अश्रु चुपचाप बहाता ये दिखा,
कभी अपने से ही बतियाता
पगला ये मुस्काता भी दिखा ..........

फिर इक दिन वक़्त की आंधी ने,
जड़ो को इसकी हिला ही दिया,
कभी आसमान को जो छूता था,
आह आज धरती पे ओंधे मूह है पड़ा ........

जिस मिट्टी से उपजा इक दिन ये,
आज देखो उसी में है रमने चला,
जाते जाते भी सत्कर्मी दरख्त ये,
सदकर्म देखो जी कर ही चला .........

ईंधन बन दो जून की रोटी का,
साधन हाय ये बन ही गया,
मानव और वृक्ष का जीवन ये,
इक जैसी ही है डगर चला ...........


पैदा हुए गोद से मिट्टी की,
है नियति दोनों की इसमें ही मिल जाना,
खेलने को इसी की गोदी थी मिली,
और अंत समय भी गोदी में इसकी ही पनाह मिली .........किरण आर्य



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शुक्रिया