Thursday, March 7, 2013

रीति का निर्वाह

मस्तिष्क की शुन्यता में विचरती वो
भावशून्य सी देख रही थी इकटक वो
जो पार्थिव शरीर श्वेत कपड़े में था
उसके सामने और कर रही थी प्रयास
निरंतर उसे पहचानने का ...........

आस पास रिश्तेदारों और पड़ोसने बैठी थी
विलाप का इक स्वर उसके कानो से टकरा रहा था
तभी किसी ने झकझोर कर उसे कहा की रो ले शांति
थोडा सा रोने से मन हल्का हो जायेगा
और वो सोच रही थी की थोडा सा रोने से
इतने सालो का गुबार राह पायेगा क्या मन का??

उसका पति हमेशा इक मानुष खोजती रही वो उसमे
लेकिन उसे केवल इक दरिंदा ही नज़र आया उसमे
शराब के नशे में धुत वो लाल आँखें
अब तो घर कर चुकी है उसके अंतस में .......

आंतरिक क्षणों में भी उसने स्त्रीत्व को पाने की बहुत चेष्टा की
लेकिन इक भोग्या से अधिक ना बन पाई वो कभी
और वो इक दरिन्दे की तरह अपनी पिपासा शांत होने तक
निरंतर नोचता रहा उसकी आत्मा को ........

हमेशा दुत्कार गाली और मार ही तो आई उसके हिस्से में
इसी तरह चलती रही जिंदगी अपने प्रवाह के साथ गतिमान सी
और उसके संग वो भी कभी लडखडाती कभी हारती
हर बार खुद को समेट कर चलती ..............

हाँ हर साल इक बच्चा सौगात रूप में उसका आँचल सजाता रहा
मन की कटुता उसे पाषाण बनाती गई
और भाव उसके मन के सब सूखते चले गए
सुनती आई थी वो कि पति देवता होता है
लेकिन उसका मन क्या मान पाया उस व्यक्ति को कभी देवता ??

आज जब पड़ा है उसका मृत शरीर तो पुराने जख्म
जो उसकी रूह को कुरचते ताज़ा होने लगे
और चीत्कार उठी वो और साथ ही
दो बूँद आसूं ढुलक आये उसके गालो पर .........

सबने राहत की सांस ली की हो गया कर्तव्य का निर्वाह
और स्त्रियों ने फिर से इक बार विलाप शुरू किया
इस शोर के बीच सोच रही वो अभी भी ये
उसके सब्र को राह मिली उसके आंसू है
या रीति का निर्वाह उसने है किया .............किरण आर्य


1 comment:

  1. बहुत ही अच्छी लगी मुझे रचना........शुभकामनायें ।
    सुबह सुबह मन प्रसन्न हुआ रचना पढ़कर !

    शब्दों की मुस्कुराहट पर .. हादसों के शहर में :)

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शुक्रिया