Thursday, December 18, 2014

आज का मनुष्य

आज का मनुष्य
सभ्यता असभ्यता की महीन लकीर के मध्य खड़ा
सभ्यता के विकास का परचम लहराता
दौड़ता सघन गलियारों में
ये दौड़ है शुरू होती
भ्रूण के अस्तित्व पाने की होड़ के साथ

आधुनिकता का जामा पहने मन
आज भी पोषित करता
जंगलराज को ही
कि जो ताक़तवर है वहीँ राजा होने योग्य है
कि जो कमजोर है शिकार होना उसकी नियति है
कि दहशत का पोषण जरुरी है

और शायद इसीलिए आज भी इंसान
अपने अंदर के जानवर को जिन्दा रखे है
रक्त पिपासु जानवर
जो ढूंढता हर पल
ताज़ा रक्त
मांस के लोथड़े जो 
बना देते हैं इन्हें हर बार
और अधिक  खूंखार 
जो ढूंढता है
हर पल नया शिकार
उसके लिए पेट की आग अहम् है

वो नहीं देखता बूढा बच्चा और जवान
उसकी नज़र में शरीर है केवल एक शिकार
संवेदनशीलता, दया, प्रेम ये सब जंजीरे है
सभ्य होने के नाम पर पालतू/भीरु  बनाने की जुगत मात्र
क्योँ कि जानता वो सभ्य हो जाना पिछड़ना है
और असभ्य कहलाना उसके इंसान होने को नकारता है

वो जानवर को मन में संजोये कहलाना चाहता
सभ्यता की अगुवाई करता सभ्य इंसान
इसीलिए खड़ा है असमंजस में
सभ्यता असभ्यता की महीन लकीर के मध्य
एक नई राह की तलाश

हाँ तलाश जारी है और उसके साथ ये अंधी दौड़ भी
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शुक्रिया