Tuesday, August 25, 2015

देह मिटटी साधो

ओह्ह्ह ये देह तो मिटटी साधो
और जाना शाश्वत है
आगमन के उत्सव सा ही.......

मौत कभी उत्सव का वरण नहीं करती,
मृत्यु शाश्वती आवरण
ओढ़े इठलाती है,
उसकी आहट मन को करती उद्वेलित,
कर्म निवृति की राह में
अंतिम ध्येय सी मौत,

करती अठ्ठास
सत्य है मौत,
लेकिन सत्य का नर्तन होता नग्न
शायद इसीलिए
सत्य से रूबरू होने को उत्सुक मन
उसके समक्ष
आंखें मूँद है लेता

जी हाँ बिलकुल
कबूतर के बिल्ली के समक्ष आंखें मूंदने जैसे ही,
बुरे कर्म भी मौत का आलिंगन करते ही
परिवर्तित हो जाते है सत्कर्मो में,
आश्चर्य है ना ?

रीत यहीं जाने वाला चाहे महाचिरकूट हो
या बड़े वाला बीप बीप
लेकिन जाने के बाद उसको गरियाना
जाने क्यों अपशगुन सा समझा है जाता ?

रुखसती के साथ ही प्रलाप शुरू होता है,
और सब चाहे जीते जी कहते रहे हो
साले के कीड़े पड़े,
लेकिन मरते ही उसकी
आत्मा की शांति के लिए प्रार्थनाये चालु होती,
मृतक के स्वर्गवासी होने की पुष्टि की जाती
उसके नाम के साथ स्वर्गीय लगा,

चाहे जीते जी वो बना गया
जाने कितनो का जीवन नरक सा
जाने वाली आत्मा परमात्मा में होती विलीन
या ओढ़ दूजा चोला
कर्म और संस्कारों के निर्वाह को होती उद्दत
ये निर्भर करता नियति पर उसकी
और नियति को नियत करते संस्कार ही
संस्कारो का फेरा और जीवन कर्म का डेरा
बस यहीं है अंतिम सत्य जिससे बंधा
जीवन मृत्यु का कर्म
और ये बावरा सा जीवन
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शुक्रिया