Tuesday, July 24, 2012

अस्तित्व बोध



तुम सागर अथाह प्यार के.........,
मैं तटस्थ खड़ी किनारे पर सोचती हुई,
क्या अंजुलि मे भर पाऊँगी तुमको मैं कभी?

या रेत के मानिंद फिसल जाओगे उंगलिओ से मेरी,
इसी उहो पो मे खड़ी थी मैं विकल बड़ी,
तभी एक विचार ने दस्तक दी और खोली दिल की मेरी कड़ी,
क्यू ना मैं नदी बन जाउ कल कल बहती हुई !!
और विलीन हो जाउ तुममे उस पल समाती हुई,
मिटा दू अस्तित्व  अपना और बन जाउ हिस्सा तुम्हारा,
ना रहू तुमसे अलग और बनू किस्सा तुम्हारा !!

उसी क्षण पा लिया तुम्हे संपूर्ण रूप मे मैने,
और मिट गई मन की सारी तृष्णा.....,
क्यूकी जान गई मैं उसी एक क्षण मे,
कि तुम ही मोहन मेरे,तुम ही हो कृष्णा !!

तुम मे समा कर अस्तित्व  विहीन नही हुई मैं,
अब तुम मे ही झलकता है व्यक्तित्व मेरा,
अब मन मे नही है विचारो की लहर,
अब मन शांत है मेरा, आश्वत थमती लहरो सा !!

अब तुम मे हू मैं, और मैं बन गई तुम,
तुम आईना हो सोच का मेरी, मेरा अस्तित्व हो तुम !!


- किरण आर्या

Wednesday, November 30, 2011

कौन हूँ मैं?

कौन हूँ मैं??????????

हर युग में छला मुझे मेरे अपनों ने ही,

कभी सीता बन अग्निपरीक्षा दी मैंने,

कभी द्रोपदी बन सही चीर हरण की पीड़ा मैंने !!



आज मैं आधुनिक नारी कहलाती हूँ,

ज़माने संग कदम से कदम मिलाती हूँ,

और इठलाती हूँ अपने आप पर,

शायद इतने समय दबाये कुचले जाने की,

पीड़ा ने ही भर दी है उच्खलता मुझमे !!



चाहती हूँ अपराजित बनना छलना चाहती हूँ,

अपने छलिया को जिनके हाथों छली गई हर युग में,

लेकिन भूल जाती हु क्यों मैं आज भी जब घटित होता है,

कुछ गलत हर ऊँगली उठ जाती है मेरी और ही,

हर आँख में छिपे आक्षेप धिधकारते मुझे ही !!



मैला होता आँचल मेरा ही जब उड़ता गर्त कहीं,

अपनी धरोहर को सहजने का भार है मेरे ही कंधो पर,

हर दुःख हंसकर सहती फिर भी अबला कहलाती मैं !!



यह इन्तहा नहीं है मेरे इम्तिहानो की,

मुझपर उठती उंगलिया पकडे खड़ी मेरी परछाई भी,

पाक साफ़ दामन लिए मुस्कुराते छलने वाले मुझे,

और मैं खड़ी अपनी ही परछाई के अनगिनत सवालो से घिरी,

सोच रही आज भी यहीं कौन हूँ मैं????????????............किरण आर्य

Friday, October 7, 2011

तुम बिन

ए मेरी जीवन संगिनी तुम कहाँ हो गई हो ग़ुम? 
जैसे शाम होते ही सूरज,
छिप जाता है सागर के आगोश में,
वैसे ही तुम खो गई क्यों चिर निंद्रा में,
जब थी तुम पास मेरे हर क्षण,
तब जान ही नहीं पाया क्या अहमियत है,
तुम्हारे होने की इस जीवन में,
आज जब तुम नहीं हो संग मेरे,
तब जीवन की धूप ने झुलसा दिया तन और मन,
और अहसास हुआ अपने अधूरेपन का,
हूँ शून्य मात्र मैं तुम बिन,
वैसे ही जैसे पतझड़ में फूलो के,
गिरने से आती है विरानी,
तुम थी तो जीवन था स्वछंद पक्षी समान,
हर चिंता और दुःख को तुम्हारी हंसी और प्यार,
बहा ले जाता था दूर अनंत में कहीं,
आज फिर तुम संग बीते पलों को जीना चाहता हूँ,
तुम्हारे प्यार को सहेजना चाहता हूँ,
जो फिसल गए मुठ्ठी से मेरी रेत के मानिंद,
एक बार फिर उन पलों को समेटना चाहता हू,
तुम संग जीना चाहता हूँ,
और बस यहीं कहना चाहता हूँ,
तुम बिन छिन्न भिन्न हो बिखर गया जीवन मेरा,
लौट आओ एक बार फिर सावन बन, 
बरस जाओ फिर जीवन में मेरे खुशियाँ बन..........किरण आर्य