चाँद हाँ जो प्रतीक है
प्रेम और सौन्दर्य का
इंसा ने श्रृंगार रस से सजा
जोड़े इससे भाव
बच्चो ने मामा कहा
जोड़े नेह संग ख्वाब ..........
चांदनी इसकी प्रेमियों को
रही रिझाती
अमावस के चाँद सी
विरह नहीं है भाती
चाँद को पाना जुस्तजू
प्रेमी ह्रदय सजाती........
आज फिर मानुष मन में है
इक हुक उठी
चाँद पे घर बसाने की चाह
आज मन बसी.......
प्रकृति और पृथ्वी से
कर खिलवाड़ वो हारा
अब लालसाओ ने उसकी
चाँद को है निहारा..........
क्या समझ पायेगा अब भी
बावरा सा इंसान
या इच्छाए लील लेंगी उसकी
सौन्दर्य प्रकृति का ..........
लालसाएं मिटती नहीं, प्रकृति पिस जाती है !
ReplyDeleteकुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।
ReplyDelete
ReplyDeleteबहुत सुंदर और सार्थक रचना
शुभकामनाये
यहाँ भी पधारे
गुरु को समर्पित
http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_22.html
बहुत सुन्दर प्रस्तुति है
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें
http://saxenamadanmohan.blogspot.in/