हां औरत होती ही है बातूनी
खुद से ही बातें करती अक्सर
वो बुनती है गुनती है
टूटे से ख्व़ाब बिखरे से शब्द
पहले बोलती थी उसकी आंखें
अनकहा सब बह जाता था
निर्झर बहते आसुओं संग
फिर सूखने लगे आँखों के कोर
और साथ ही मन के भाव भी....
अब वो बुनती है गुनती है
मन की वेदना घुटी सी चीत्कार
उसका खुद से
बातें करने का सिलसिला
तीव्र होने लगी है उसकी गति
अब अक्सर खुद से बातें करती
नज़र आती है वो....
वो बुनती है गुनती है
चातक सी प्यास तन की सिलवटें
देह की मृगतृष्णा भटकाती उसे
क्षणिक चमक भरमाती उसे
ढूंढती उसमें वो तृप्ति
लेकिन तोड़ ये मकड़जाल संभलती वो.....
वो बुनती है गुनती है
मन का अंतर्द्वंद और आत्मचिंतन
जो ले जाता उसे अनंत की ओर
खींचता बरबस अपनी ओर
कुछ निर्भय और आश्वस्त होती
अपने बिखरे वजूद को बटोरती वो....
वो बुनती है गुनती है
मन की रिक्तता मरु सी तपिश
अब खटकते नहीं सपने
उसकी आखों में हाँ आंखें उसकी
जो स्व्प्नीली थी कभी
फिर से जीवंत नज़र है आने लगी वो.....
अब बुनती है गुनती है
मन के गीत मीठा सा संगीत
जो सुकून दे जाता है उसे
खुद से बातें करने का सिलसिला
अब हो गया है अनवरत सा
हर पल बुदबुदाती गुनगुनाती वो
लिखती कभी पीड़ा कभी जीवन के गीत .....
हाँ बुनती है गुनती है
वो अब हरसिंगार की खुशबू
मीठे से अहसास
बातें करना खुद से रास आने लगा उसे
अब क्योंकि मिल गया जरिया उसे
अपनी पीड़ा रिक्तता ख़ुशी ग़म
हर भाव को शब्दों में उकेरने का...
अब वो बुनती है गुनती है
कलकल सी हंसी मुस्कुराते भाव
हाँ नारी होती है बातूनी
खुद से करती है बातें हर पल ........
खुद से ही बातें करती अक्सर
वो बुनती है गुनती है
टूटे से ख्व़ाब बिखरे से शब्द
पहले बोलती थी उसकी आंखें
अनकहा सब बह जाता था
निर्झर बहते आसुओं संग
फिर सूखने लगे आँखों के कोर
और साथ ही मन के भाव भी....
अब वो बुनती है गुनती है
मन की वेदना घुटी सी चीत्कार
उसका खुद से
बातें करने का सिलसिला
तीव्र होने लगी है उसकी गति
अब अक्सर खुद से बातें करती
नज़र आती है वो....
वो बुनती है गुनती है
चातक सी प्यास तन की सिलवटें
देह की मृगतृष्णा भटकाती उसे
क्षणिक चमक भरमाती उसे
ढूंढती उसमें वो तृप्ति
लेकिन तोड़ ये मकड़जाल संभलती वो.....
वो बुनती है गुनती है
मन का अंतर्द्वंद और आत्मचिंतन
जो ले जाता उसे अनंत की ओर
खींचता बरबस अपनी ओर
कुछ निर्भय और आश्वस्त होती
अपने बिखरे वजूद को बटोरती वो....
वो बुनती है गुनती है
मन की रिक्तता मरु सी तपिश
अब खटकते नहीं सपने
उसकी आखों में हाँ आंखें उसकी
जो स्व्प्नीली थी कभी
फिर से जीवंत नज़र है आने लगी वो.....
अब बुनती है गुनती है
मन के गीत मीठा सा संगीत
जो सुकून दे जाता है उसे
खुद से बातें करने का सिलसिला
अब हो गया है अनवरत सा
हर पल बुदबुदाती गुनगुनाती वो
लिखती कभी पीड़ा कभी जीवन के गीत .....
हाँ बुनती है गुनती है
वो अब हरसिंगार की खुशबू
मीठे से अहसास
बातें करना खुद से रास आने लगा उसे
अब क्योंकि मिल गया जरिया उसे
अपनी पीड़ा रिक्तता ख़ुशी ग़म
हर भाव को शब्दों में उकेरने का...
अब वो बुनती है गुनती है
कलकल सी हंसी मुस्कुराते भाव
हाँ नारी होती है बातूनी
खुद से करती है बातें हर पल ........
Well said...
ReplyDeleteFashion Photographer
सुरिंदर जी आभार ...............शुभं
Deleteआह !!!
ReplyDeleteकितना अपना सा...
कैसी लिख ली सखी मेरे मन की बतिया....
प्यारी सखी मेरी तुमसे अलग कहाँ हूँ मैं तुम्हारा ही तो हिस्सा हूँ ........:)
Deleteमीठे से अहसास
ReplyDeleteबातें करना खुद से रास आने लगा उसे
अब क्योंकि मिल गया जरिया उसे
अपनी पीड़ा रिक्तता ख़ुशी ग़म
हर भाव को शब्दों में उकेरने का...
क्या लिख दिया तुमने ये किरण ...,अंतर्मन को संवेदित करता ... Superb!
दी मेरी आह आपके शब्द मेरे हौसले को एक नई उड़ान दे गए ........आपके लिए एक मीठी वाली मुस्कान .......:)
Deleteबहुत ही सशक्त रचना ..नारी मन की वेदना
ReplyDeleteरचना आभार ...............शुभं
Deleteरचना आभार ...............शुभं
Deletebahut badhiya nari man nari samvedna
ReplyDeletebadhiay rachna
बहुत ही सुन्दर दीदी पढ़कर आनंद आ गया सत्य सटीक सुन्दर हृदयतल से बधाई इस सुन्दर सशक्त रचना हेतु.
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