Sunday, August 25, 2013

बातूनी

हां औरत होती ही है बातूनी
खुद से ही बातें करती अक्सर
वो बुनती है गुनती है
टूटे से ख्व़ाब बिखरे से शब्द
पहले बोलती थी उसकी आंखें
अनकहा सब बह जाता था
निर्झर बहते आसुओं संग
फिर सूखने लगे आँखों के कोर
और साथ ही मन के भाव भी....

अब वो बुनती है गुनती है
मन की वेदना घुटी सी चीत्कार
उसका खुद से
बातें करने का सिलसिला
तीव्र होने लगी है उसकी गति
अब अक्सर खुद से बातें करती
नज़र आती है वो....

वो बुनती है गुनती है
चातक सी प्यास तन की सिलवटें
देह की मृगतृष्णा भटकाती उसे
क्षणिक चमक भरमाती उसे
ढूंढती उसमें वो तृप्ति
लेकिन तोड़ ये मकड़जाल संभलती वो.....

वो बुनती है गुनती है
मन का अंतर्द्वंद और आत्मचिंतन
जो ले जाता उसे अनंत की ओर
खींचता बरबस अपनी ओर
कुछ निर्भय और आश्वस्त होती
अपने बिखरे वजूद को बटोरती वो....

वो बुनती है गुनती है
मन की रिक्तता मरु सी तपिश
अब खटकते नहीं सपने
उसकी आखों में हाँ आंखें उसकी
जो स्व्प्नीली थी कभी
फिर से जीवंत नज़र है आने लगी वो.....

अब बुनती है गुनती है
मन के गीत मीठा सा संगीत
जो सुकून दे जाता है उसे
खुद से बातें करने का सिलसिला
अब हो गया है अनवरत सा
हर पल बुदबुदाती गुनगुनाती वो
लिखती कभी पीड़ा कभी जीवन के गीत .....

हाँ बुनती है गुनती है
वो अब हरसिंगार की खुशबू
मीठे से अहसास
बातें करना खुद से रास आने लगा उसे
अब क्योंकि मिल गया जरिया उसे
अपनी पीड़ा रिक्तता ख़ुशी ग़म
हर भाव को शब्दों में उकेरने का...

अब वो बुनती है गुनती है
कलकल सी हंसी मुस्कुराते भाव
हाँ नारी होती है बातूनी
खुद से करती है बातें हर पल ........

Thursday, August 1, 2013

व्यस्त सी है जिंदगी
हिस्सों में बँटी हुई
सिरे परस्पर उलझे से
रेत से फिसल रहे ....
 
सागर की लहरों सी 
शोर संग विकल बढ़ी
शिलाओं के नगर में
टूटी हुई सांस सी .....
 
है कभी मधुमास सी
पिया मिलन की आस लिए 
चाहतों के घरौंदे में
मधुर से अहसास सी ....
 
चक्की के पाटों में फंसी
पिस रही बेबस बड़ी
सूखे से कोर में
अश्रु की बरसात सी .....
 
अनबुझी प्यास सी
रूह की भटकन लिए
नीरवता के सघन में
उड़ रही खाक सी ......
 
सन्नाटो का है उपद्रव
मौन एक रुदन लिए
मरघट से शहर में
मृत्यु के संताप सी .....
 
व्यस्त सी है जिंदगी
हास सी परिहास सी
मुस्कानों के मेलें में
अपनों के साथ सी.......

Monday, July 22, 2013

चाँद हाँ जो प्रतीक है
प्रेम और सौन्दर्य का
इंसा ने श्रृंगार रस से सजा
जोड़े इससे भाव
बच्चो ने मामा कहा
जोड़े नेह संग ख्वाब ..........

चांदनी इसकी प्रेमियों को
रही रिझाती
अमावस के चाँद सी
विरह नहीं है भाती
चाँद को पाना जुस्तजू
प्रेमी ह्रदय सजाती........

आज फिर मानुष मन में है
इक हुक उठी
चाँद पे घर बसाने की चाह
आज मन बसी.......

प्रकृति और पृथ्वी से
कर खिलवाड़ वो हारा
अब लालसाओ ने उसकी 
चाँद को है निहारा..........

क्या समझ पायेगा अब भी
बावरा सा इंसान
या इच्छाए लील लेंगी उसकी 
सौन्दर्य प्रकृति का ..........