उजास
स्तब्ध हर सांस है
रो रहा आकाश है
हर तरफ विनाश है
मानवता का ह्रास है !
सिसकते एहसास है
क्या ये विकास है ?
या सृष्टि का नाश है
देवों का जहाँ वास है
अब वहां विनाश है !
महत्वाकांक्षा की खाज़ है
रो रहा आह मधुमास है
मानुष तन जो खास है
रक्त रंजित सा मॉस है !
प्राण अब निश्वास है
भटकती सी प्यास है
अँधेरे जो बेआवाज़ है
मन के आस पास है !
फिर भी मन में विश्वास है
आने वाली सुबह एक उजास है
दीये सी झिमिलाती आस है
आँखों में चमकता प्रकाश है
होंटों पर निश्छल सा सुहास है
मन की ये अडिग आवाज़ है
जहाँ आस है जिंदगी में मिठास है
मधुर जो मिठास है सबसे खास है !!
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बहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteनई पोस्ट : कावड़ : लोकमन का उत्कृष्ट शिल्प
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (30-11-2013) "सहमा-सहमा हर इक चेहरा" “चर्चामंच : चर्चा अंक - 1447” पर होगी.
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
बहत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteकल 01/12/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
एक निवेदन
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इससे आपके पाठकों को कमेन्ट देते समय असुविधा नहीं होगी।
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http://www.youtube.com/watch?v=VPb9XTuompc
धन्यवाद!