जाने क्या सोच के उसने हमसे मुँह मोड़ लिया,
दिल में पनपे विश्वास को यू चंद लम्हों में तोड़ दिया,
भूल गए वो बहुत मुश्किल से जगह पता है यह दिल में,
गर दरक जाए तो, दोवारा नहीं पनप पाता है यह कभी!
बैठी थी इसी उहोपोह में,सीने में दर्द उनकी जुदाई का बसाये,
तभी नज़र पड़ी एक छोटी सी चीटी पर मेरी,
जो चढ़ती थी दीवार पर धेला मुँह में दबाये,
हर बार कुछ ऊपर चढ़ते ही गिर जाती थी नीचे!
लेकिन हौसला कुछ ऐसा था उसका,
कि फिर एकत्र कर अपनी शक्ति,
चढ़ती थी उसी जज्बे और हौसले के साथ!
देख जेहन में मेरे, ली करवट एक विचार ने,
कहने को तो सबसे श्रेष्ठ जीव है हम,
लेकिन गर लगे जीवन में एक ठोकर,
तो क्या इस कदर टूटे जाते है हम,
कि गिरकर फिर संभल नहीं पाते है हम?
अपने जीवन में हुई गलतियो से,
सबक लेने की बजाय हार जाते है हम,
समझते है सब ख़त्म हुआ जीवन में,
सिर्फ यह आंसू ही है संगी हमारे,
बाकी रिश्ते है झूठे जीवन है अर्थहीन!
गर यह सोच और निराशा को साथी बना,
गिरकर उठ भी नहीं सकते हम,
तो फिर काहे को श्रेष्ठ प्राणी कहलाते है हम?
हमसे श्रेष्ठ तो वो चीटी है जो बार बार गिरकर भी,
अपनी मंजिल को पाने का जज्बा रखती है,
गिरकर भी अंत में अपनी मंजिल पा ही लेती है!
तो उठो हे दोस्त जहाँ लगे ठोकर,
वहीँ से ही करो एक नई शुरुवात,
जीवन विश्वास के साथ आगे बदने का नाम है,
लगे एक ठोकर तो क्या हुआ संभल कर ही तो मजिल पाई जाती है
- किरण आर्य
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शुक्रिया