Thursday, September 20, 2012

सभ्य हम

कुछ आँखे पथराई हुई सी बेबसी से तरसती हुई,
बस बरबस गगन को निहारती हुई निरंतर,
कड़ाके की सर्दी खून को सर्द करती हुई,
उनके तन को नही मन को भी अंदर तक सालती हुई,
अब तो आँसू भी नही बहते आँखो से उनकी,
कोर भी सूख गये है उनके सूखे हुए सोतो की तरह,
ठंड से सिकुड़ते बच्चे उनके कड़कड़ाते हुए,
अब तो रुदन भी उनका हलक से निकलता नही,
कहीं अंदर ही मर रहा है हर पल प्रतिपल,
अपने फटे आँचल से ढाकती उनका सिकुदा बदन,
सोच रही है बेबस माँ इस झीने आँचल मे मेरे,
क्या पता अभी भी गर्मी कुछ बाकी हो,
जो मिटा दे उसके बच्चो की तृष्णा और ठंड,
जो दे उन्हे कुछ गर्माहट भरे प्यारे पल,
हम अपने घर मे रज़ाई मे बैठे गर्म पलो का आनंद लेते,
ब्लोअर से गर्म हुए कमरे मे भी सर्दी को कोस रहे है,
हममे से कितने है जो इनके विषय मे भी सोच रहे है?
क्या इतने सबल भी नही है हम जो दूसरो की खुशी का सोच सके,
अपने करमो से किसी के फीके होटो पर मुस्कुराहट ला सके,
अपने हिस्से के सुखो मे से एक हिस्सा भी नही बांट सकते हम?
फिर कैसे अपने को सभ्य मानव कहते है हम?            


मेरी यह रचना तभी सार्थक है जब हम सभी इन्हे सिर्फ़ सहानुभूति ना देकर दिल से इनके लिए कुछ करने का जज़्बा ला सके, क्या हम एक चेहरे को भी सुकून नही दे सकते अपने कुछ प्रयासो से..................


     

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शुक्रिया