Friday, September 21, 2012

 मन में क्षोभ के साथ आक्रोश, उसी को राह देने का प्रयास है यह इस विश्वास के साथ कि शायद कुछ राह मिले...........
डायन हाँ टोनही या बुराई का प्रतीक
मेरे देश में जहाँ एक ओर पूजा जाता
स्त्री को देवी रूप में वहां दूजी ओर कैसे
बन जाती इक स्त्री डायन जब होती वो
विधवा परित्यक्ता, गरीब या उम्रदराज
केवल अन्धविश्वास या निज स्वार्थ से
हो वशीभूत चंद लोग उठाते लाभ
इन कुप्रथाओ का और एक स्त्री जो
स्नेह की प्रतिमूर्ति है होती
यकाएक हो जाती परिवर्तित डायन में..
और बन जाती पत्थरो और
एक दर्दनाक मौत की हकदार 
सामने खड़े उसके अपने ही पशुता की चरम सीमा भी
जब देते लाँघ तार तार होता उसका वजूद भी कपड़ो सा
तप्त सलाखे उसके तन को ही नहीं मन पर भी
अंकित करती ना मिटने वाले निशां
उसको जबरन पिलाया जाने वाला मैला
जहर से भी होता मुश्किल पचा पाना
पी मन के गरल को सहती वो सितम सभी
नोच खसौट जैसे गिद्ध हैं लपकते लाश पर
ख़त्म होती ये अमानवता जब होती
सांस की इतिश्री या फिर होती विवश
उसका अंगीकार करने को स्वयं वो
माना केवल गाँव कस्बो में होता ये
लेकिन शहर में रहकर क्या इससे मुक्त है हम?
केवल आक्रोश व्यक्त कर देने से मिल सकती है मुक्ति?
उस वेदना से क्या जो पलती है उस रुदन में
स्त्री से डायन बन अभिशप्त सी सहमी आँखों में
किसी कुएं का पानी सूख जाना
किसी का बीमार होना
या असमय मृत्यु को प्राप्त होना
इसका दोष मढ़ एक स्त्री पर उसे
कटघरे में कर खड़ा डायन कहा जाना
हास्यपद कहे अशिक्षा अन्धविश्वास या क्या नाम दें?
क्या मिल सकता जवाब मुझे मेरे इन सवालो का?
या फिर अभी स्त्री की परीक्षा के दौर अभी बाकी है?
विडंबना ये कि बावजूद इसके खुद को
कहते सभ्य और आधुनिक हम.......................किरण आर्य      

(आज करती हूँ अपने सभी मित्रो का आवाहन मैं यहाँ जिनकी लेखनी तलवार का काम है करती और जिनकी रचनाये श्रृंगार रस, हास्य रस, करुण रस, वीर रस से औत प्रोत होती है, जिनके शब्द दिलो को झंकृत कर जाते है क्या वो दे सकते है मेरे इन सवालो का जवाब?? क्या मेरी महिला मित्र सभी जो करती अधिकारों की बातें और होती आहात तो खड़ी होती है शेरनी सी आज करेंगी अपने कर्तव्य का निर्वाह इस मुहीम से साथ खड़ी हो मेरे........??????)

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