Friday, September 18, 2015

खरी खरी (दिल का दर्द)

हर बावरी है कहती पति परमेश्वर मेरा स्वामी मेरा प्राण प्यारा, जब ईश्वर का दर्जा दे ही दिया मान ही लिया उसे स्वामी तो फिर वो दिखाए स्वामित्व प्रभुत्व तो काहे महिला सशक्तिकरण का झंडा उठा चिल्लाना जी ? मानसिकता गुलाम प्रवृति को सर माथे लगा ही चुकी है, सदियों से चली आ रही प्रथा लड़की जरा बड़ी हुई नहीं संस्कारों इज्ज़त की बेड़ियाँ पहन पाँव में नाचती ख़ुशी ख़ुशी.......ऐसे मत चलो ऐसे मत हंसो ऊंची आवाज़ में मत बोलो सलीके से रहो......और सबसे बड़ी बात कि अभी बिटिया बड़ी हो रही तो घर के काम काज रसोई बनाना सिखाओ ताकि दूजे घर जाके गाली सुनने को न मिले.......चाहे लड़की जिला क्लेक्टर हो या मंत्री संत्री लेकिन खाना बनाना घर में उसकी जिम्मेदारी, बच्चे कुछ अच्छा कर जावे तो पिता की छाती चौड़ी और जरा गलत चले तो तुम जरा सा बच्चो को भी नहीं संभाल सकती हो ? कमजोर अबला कहलाती और ऑफिस से आके खाना बनाने से लेकर सारी जिम्मेदारी उसके ही सर, गजब बात है ना प्रबल कहलाने वाला पुरुष ऑफिस से आके टीवी देखता खाना खाता और फिर थककर सो जाता और कमजोर महिला ऑफिस से आ बच्चो को देखती खाना बनाती रसोई बना किचेन साफ़ कर सोती सुबह की सब व्यवस्था निपटाकर.....हास्यपद लगता सच बहुत......कल बेटी बोली मम्मा आज टीचर पढ़ा रही थी तो विषय के बीच में आया कि पैर चौड़े कर खड़े होना स्त्री का बुरा क्यों समझा जाता है? बोली मैंने तुरंत कहा मेम ये माना जाता है जो स्त्री पैर चौड़े कर खड़ी होती है वो चरित्रहीन होती है तो उसकी मैडम ने हँसते हुए कहा जानती हो वास्तव में पैर चौड़े कर खड़ा होना आत्मविश्वास की निशानी होती है, लेकिन इसे स्त्री के चरित्र से इसीलिए जोड़ दिया गया ताकि स्त्रियाँ पैर चौड़े कर खड़ी न हो पावे........सुनकर सोच में पड़ गई मैं ? फिर लगा इसमें सोचना कैसा रे यहीं तो होता आता है, अरे तू लड़का है घर का काम बहन को करने दे, लड़के रोते नहीं है, बस रुलाते है ....और लड़की लेकर भाग गया या प्रेम कर बैठा तो कोई नहीं इस उम्र में करते ऐसे कर्म लड़के.....ओह्ह्ह शराब पीने लगा है, या रात की पार्टियों में जाता है, लड़का जवान हो गया है.......दोहरी मानसिकता पुरुष करे तो जायज़ और स्त्री करे तो पाप महापाप.....और कह दो आप तो निरी स्त्रीवादी......यानी कहना भी गुनाह........सहो सहो और चुप रहो यहीं नियति तुम्हारी....स्त्री पुरुष एक ही रथ के दो पहिये है, एक दूजे बिन अधूरे एक दूसरें के पूरक फिर काहे नहीं बराबर ? समाज ने दिया ये ढांचा हमारी पुरातन परम्पराओं से चलता आ रहा ये तो.....यहीं कहेंगे न आप.......अरे बई क्यूँ नहीं इस ढर्रे को बदला जा सकता आखिर समाज हमसे ही बना है न? जब संसार परिवर्तनशील है, तो यहाँ आके क्यों सोच गच्चा खा जाती जी ?.........आज की बात करे तो कुछ पढ़े लिखे दम्पतियों में जो दोनों ही काम करते बाहर जाके घर से बदलाव आया है, वो समझते है स्त्री भी उनकी तरह इंसान हाड मॉस का पुतला है, तो देते साथ समझती उसकी भावनाओं को......जो करते ऐसा वो मासूम बेक़सूर समझे खुद को मेरे कटघरे से बाहर खड़ा........और सही मायनों में कहूँ तो स्त्री जहाँ खड़ी उसके लिए उसकी जिम्मेदारी भागीदारी अधिक है, वो नियति मान बैठी इसे खुद की, महान कहलाने की चाह बड़ी आखिर........सहनशील, त्याग की मूर्ति, प्रेमी ह्रदय कहलाने का मोह जाने कब छोड़ेगा पीछा उसका जाने कब ?........दिल्ली से दिल के दर्द का वमन करती खरी खरी के साथ खुराफाती किरण आर्य

2 comments:

  1. खरा लिखा और सच भी , लेखनी शशक्त हो

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    1. शुक्रिया सर ..........शुभम

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शुक्रिया