Tuesday, August 7, 2012

मुठ्ठी बँधी



मुठ्ठी बँधी

वो एक प्यारी सी मासूम लड़की
मुस्कुराती झील सी आँखो वाली
उसकी वो शोखी वो अल्हड़ हँसी
अनायास ही ध्यान आकर्षित करती
रुनझुन पायल की खनक सी दिल मे बसी,

तभी बस मे चड़े कुछ उच्चखल लड़के
आते ही उनकी नज़र उसपर पड़ी,
चिपक गई उसके शरीर से उनकी नज़रे
जैसे गिद्ध देखे शिकार को झपटने को आतुर,

वो कुछ सहमी सकुचाई सिमट गई अपने मे कहीं
लगे वो उस संग खेलने जैसे माटी की गुड़िया कोई
बेबस आँखो मे नीर लिए देख रही वो सबकी तरफ
लोग बैठे थे बुत के मानिंद जैसे कुछ ना हुआ घटित,

उसकी नज़रो मे थे सवाल अनगिनत
क्या मेरी जगह होती बहन या बेटी तुम्हारी
तो भी पसरा होता यह मौन यहाँ?
क्या मुझ द्रौपदी की लाज बचाने,
नही अवतरित होंगे कृष्ण यहाँ

तभी एक अधेड़ महिला ने उठाई आवाज़
मानो युद्ध क्षेत्र मे गांडीब की टंकार
कब तक दम तोड़ेगी मानवता यहाँ,
मूक दर्शक बन तटस्थ रहने से अच्छा है
पहन लो काँच की चूड़िया,

एकाएक जागृत हुई एक नवीन चेतना
तन गये चेहरे सबके, उठ खड़े हुए हाथ कई
लगा बिखराव हमारा बन गया मुठ्ठी बँधी

उस लड़की के चेहरे की संतुष्टि देख लगा
मरी नही है इंसानियत यहाँ,
फिर जन्म लिया है मानवता ने आज
और यही है एक नवीन सुबह का आगमन
एक नयी सुबह का आगाज़!!

- किरण आर्या

2 comments:

  1. सुंदर सोच -- एक सकारत्मक भाव -नारी को स्वयं भी महिलाओ के लिए खड़ा होना जरूरी ना कि केवल किसी ओर को जिम्मेदार ठहरा कर ..... बहुत खूब किरण जी

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  2. SHAABAAS KIRAAN..........EK NAYI SUBAH KA AAGAAHZ KARTI RACHNA.........SUNDAR KALPANA........WAAKAI ACHCHHA LIKHA HAI TUNE !!!!!

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शुक्रिया